SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४ / पार्श्वपुराण कै जिनवरकी भक्ति सहाय । और न दीखै धर्म उपाय || यह विचारि जिनपूजनहेत । उठ्यौ इन्द्र परिवार समेत ॥ २२३॥ अमृत-वापिका मैं करि न्हौन । गयौ जहां मनिमय जिनभौन || रतन-बिम्ब बन्दे विहसाय । भावभगतसौं सीस नवाय ॥ २२४॥ पूजा करी दरब धरि आठ । पुलकित अंग पढ्यौ थुतिपाठ || चैत-बिरछ जिन - प्रतिमा जहां । महा महोच्छव कीनौं तहां ॥२२५॥ यों बहु पुन्य उपाय सही । फेरि आय निज सम्पति गही ॥ दिव्यभोग भुंजे बड़भाग । लोकोत्तम जिस सहज सुहाग ॥२२६॥ सोभन रूप प्रथम संठान । वसु वैक्रियक सुलच्छनवान || कोमल सुरभि सचिक्कन देह । सात धात वरजित गुनगेह ||२२७॥ पलकपात लोचनमैं नहीं । मलपसेव नख केस न कहीं ।। जरा कलेस न चिंता सोग । नाहीं अलप मृत्युभय रोग ॥२२८॥ इत्यादिक दुखजोग अनेक । तिनमैं नहीं अमरके एक ।। आठ रिद्धि अनिमादि पसत्थ । तिसबल सकलकाज समरत्थ ॥ २२९ ॥ सुरग लोकके सुखकी कथा । कहै कहां लौं बुधबल जथा ॥ बैठि मनोगत विमल विमान । विचरै नभ-पथ वांछित थान ||२३०॥ कबही मेरु जिनालय गमै । कबही आन कुलाचल रमै ॥ दीप समुद्र असंख अपार । करै सुरेंद्र सुछंद विहार ||२३१|| वर्ष वर्षमैं हर्ष बढ़ाय । तीन बार नन्दीसुर जाय || पंच कल्यानक समय सुजोग । करै तीर्थपद- नमन नियोग ||२३२|| और केवली प्रभुके पाय । दोय कल्यानक पूजै आय ॥ निज कोठे थिर होय सुग्यान । करै दिव्य-वानी रसपान ||२३३॥ सभा सिंहासन बैठि सुरेस । देय सुरन प्रति हित उपदेस ॥ करै तत्त्व- वरनन विस्तार | अनेकांत वानी अनुसार ||२३४|| जे सुर सम्यक दरसन हीन । तपबल देव भये सुखलीन || तिन-प्रति धर्मवचन उच्चरै । दरसन गुनकी प्रापति करै ||२३५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002686
Book TitleParshvapurana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi, Nathuram Premi
PublisherSanmati Trust Mumbai
Publication Year2001
Total Pages175
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy