________________
७२/पार्श्वपुराण
एक महूरतमै तहां, संपूरन तन धार || किधौं रतनकी सेज तजि, सोवत उठ्यौ कुमार ||२००|| मनि-किरीट माथे दिपै, आनन अधिक सुरूप ।। कानन कुंडल जगमगैं, पानन कटक अनूप ||२०१।। भुज-भूषन-भूषित भुजा, हिये हार छबि देत ॥ अंग अंग इत्यादि बहु, सब आभरन समेत ।।२०२।।
- चौपाई। सनै सनै देखै दिस सही, लोचनकोर कान लगि रही ।। विस-मयवंत होय मन ताम । कहै कौन आयौ किस धाम ||२०३।। अहो कौन यह उत्तम देस | सकल संपदाथान बिसेस ।। कंचनके मंदिर मनिजरे । दीसैं दिव्य अपछराभरे ॥२०४।। अति उतंग अति ही दुति धरै | मध्य सभा-मंडप मनहरै ।। सिंहासन अदभुत इहि ठाम | मानौं मेरुसिखर अभिराम ||२०५।। अनुपम नाटक देखनजोग | श्रवणसुखद ये गीत मनोग || ये लावन्यवतीं वरनारि । रूप-जलधि बेला उनहारि ।।२०६।। ये उतंग हाथी मदभरे । तेज तुरंगनके गन खरे ।। कंचन रथ पायकदल जेह । मो प्रति सिर नावैं सब येह ।।२०७॥ सब आनंद भरे मुझ देख । सब बिनीत सब सुंदर भेख ।। जयजयकार करें विहँसाय । कारन कछु जान्यौ नहिं जाय ।।२०८।।
दोहा । इन्द्र-जाल अथवा सुपन, कै माया भ्रम कोय || यों सुरेस सोचै हिये, पै निरनय नहिं होय ॥२०९।।
चौपाई। तब तिस थानक देव प्रधान । मनकी बात अवधिसौं जान || जोग वचन बोलै सिरनाय । संसय हरन स्रवन सुखदाय ||२१०।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org