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चौथा अधिकार/७१
रितुकी रीति फिरै नहिं कदा । सोमकाल सुखदायक सदा ।। छत्रभंग चोरी उतपात । सुपने नहीं उपद्रवजात ||१८९।। ईति भीति भूचाल न होय । बैरी दुष्ट न दीसै कोय || रोगी दोखी दुखिया दीन । बिरधवैस गुण-संपति हीन ||१९०।। बढ़ती अंगविकलता कहीं । ये सब सुरगलोक-मैं नहीं ।। सहज सोम सुंदर सरवंग | सब आभरन अलंकृत अंग ।।१९१।। लच्छन लंछित सुरभि सरीर । रिद्ध-सिद्ध मंदिर मन धीर ।। काम-सरूपी आनँद कंद | कामिनि-नेत्र-कमलिनी-चंद ||१९२।। बदन प्रसन्न प्रीतरस भरे | बिनय बद्धि विद्या आगरे । यों बहुगुण मंडित स्वयमेव । ऐसे सुरग निवासी देव ।।१९३।।
दोहा । ललितवचन लीलावती, सुभ लच्छन सुकुमाल | सहज सुगंध सुहावनी, जथा मालतीमाल ||१९४॥ सीलरूप लावन्य-निधि, हावभाव रसलीन | सीमा सुभग सिंगारकी, सकल कला परवीन ||१९५।। निरत गीत संगीत सुर, सब रसरीत मँझार || कोविद होंहि सुभावतें, सुरग लोककी नार ||१९६।। पंच इंद्रि मनकौं महा, जे जगमैं सुखहेत ।। तिन सबहीको जानियौ, सुरग-लोक-संकेत ||१९७।।
चौपाई। इत्यादिक बहु संपति-थान । देवलोक-महिमा असमान । आनतवर विमान है जहां । धस्यौ जनम सुरपतिने तहां ।।१९८||
दोहा । उपज्यौ संपुट गर्भ , तेज पुंज अति चंड ।। मानौं जलधर पटलौं, प्रगट्यौ दामिनि-दंड ||१९९।।
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