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७०/पार्श्वपुराण
तीखे नखन विदारै काया, हाथ कठोरन खंड करै ।। बांकी दाढ़नसौं तन भेदै, वदन भयानक ग्रास भरै ||१७७।। यों पसुकृत परचंड परीषह, समभावनासौं साधु सही ।। क्रोध विरोध हिये नहिं आन्यौ, परमछिमा उरमाझ बही ||१७८।। धनि धनि श्रीआनंद मुनीसुर, धनि यह धीरज-भाव भजे || ऐसे घोर उपद्रवमैं जिन, जोग जुगतसौं प्रान तजे ||१७९।। अंत समय परजंत तपोधन, सुभ भावनसौं नाहिं चये ।। आनत नाम स्वर्ग-मैं स्वामी, सुरगन-पूजित इंद्र भये ||१८०।।
दोहा । सुरगलोक बरनन लिखों, जथासकति सुखरीत । धर्म धर्म के फलविर्षे, ज्यों मन उपजै प्रीत ॥१८१।।
चौपाई। चंदकांति मूंगा-मनि-मई | नानाबरन भूमि बरनई ।। रात दिवसको भेद न जहां । रतन-उदोत निरंतर तहां ||१८२|| मनि कंगुरे कंचन प्राकार | औंड़ी परिखा ऊंचे द्वार || तोरन तुंग रतन-गृह लसैं । ऐसे सुरगलोक पुर बसैं ।।१८३।। चंपक पारिजात मंदार | फूलन फैल रही महकार || चैतबिरछतै बढ्यौ सुहाग । ऐसे सुरग रबाने बाग ||१८४।। विपुल वापिका राजै खरी । निर्मल नीर सुधामय भरी ।। कंचन कमल-छई छबिवान । मानिक खंडखचित सोपान ||१८५।। कामधेनु सोहैं सब गाय । कलपवृच्छ सबही तरुराय ।। रतनजाति चिंतामनि सबै । उपमा कौन सुरगकौं फबै ।।१८६।। गान करै कहिं सुरसुंदरीं । बन-बीथिन बैठी रसभरी ।। कहीं देवगन वनितासंग | लीलाबन विचरै मनरंग ।।१८७।। भंद सुगंधि बहै नित वाय । पहु-परैनु रंजित सुखदाय || आंधी मेह न कबहीं होय । ताप तुसार न व्यापै कोय ।।१८८।।
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