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________________ चौथा अधिकार/६९ तीर्थंकर आहार दुक, तीन प्रकृति ये जान || इनको बंध मिथ्यातमैं, कह्यौ नहीं भगवान ||१६५।। तातें तीर्थंकर प्रकृति, तीनों समकित माहिं ।। सोलह कारनसौं बंधै, सबको निहचै नाहिं ।।१६६।। सोरठा । पूज्यपाद मुनिराय, श्रीसरवास्थ-सिद्धिमैं || कह्यौ कथन इहि भाय, देखि लीजियो सुबुधि-जन ||१६७।। कुसुमलता। सोलह कारन ये भवतारन, सुमरत पावन होय हियौ ।। भावें श्रीआनंद महामुनि, तीर्थकर पद बंध कियौ ।।१६८। काय कषाय करी कृस अति ही, सत संजम गुण पोढ़ कियौ ।। तप-बल नाना रिद्धि उपन्नी, राग विरोध निबार दियौ ॥१६९।। जिस बन जोग धरै जोगेसर, तिस बनकी सब विपत टलैं ।। पानी भरहिं सरोवर सूखे, सब रितुके फलफूल फलैं ।।१७०॥ सिंहादिक जे जातविरोधी, ते सब बैरी बैर तजै ।। हंस भुजंगम मोर मंजारी, आपसमैं मिलि प्रीति भजै ॥१७१।। सोहैं साधु चढ़े समतास्थ, परमारथ पथ गमन करें । सिवपुर पहुंचनकी उर वांछा, और न कछु चित चाह धरै ।।१७२।। देहविरक्त ममत्त बिना मुनि, सबसौं मैत्री-भाव बहैं ।। आतमलीन अदीन अनाकुल, गुन वरनत नहिं पार लहैं ||१७३।। एक दिना ते छीर बनांतर, ठाड़े मुनि वैराग भरे ।। पौन परीषहसौं नहिं कांपै, मेरु-सिखर ज्यों अचल खरे ||१७४।। सो मर नरक कमठचर पापी, नानाभांति विपत्ति भरी ॥ तिसही काननमैं विकटानन, पंचाननकी देह धरी ।।१७५।। देखि दिगंबर केहरि कोप्यौ, पूर्वभवांतर बैर दह्यौ । धायौ दुष्ट दहाड़ ततच्छन, आन अचानक कंट गह्यौ ।।१७६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002686
Book TitleParshvapurana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi, Nathuram Premi
PublisherSanmati Trust Mumbai
Publication Year2001
Total Pages175
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size6 MB
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