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६८/पार्श्वपुराण
अनसन आदि मुकति-दातार | उत्तम तप बारह परकार || बल अनुसार करे जो कोय । सो सातमी भावना होय ।।१५३।। जती-वर्गकौं कारन पाय । विघन होत जो करै सहाय ॥ साधु-समाधि कहावै सोय । यही भावना अष्टम होय ||१५४।। दसबिध साधु जिनागम कहे । पथ-पीड़ित रोगादिक गहे ।। तिनकी जो सेवा-सतकार । यहि भावना नौमी सार ||१५५।। परम पूज्य आतम अरहंत । अतुल अनंत चतुष्टयवंत ।। तिनकी थुति नति पूजा भाव । दसम भावना भवजल-नाव ||१५६।। जिनवर-कथित अर्थ अवधार । रचना करै अनेक प्रकार ||
आचारजकी भक्ति विधान । एकादसम भावना जान ||१५७।। विद्यादायक विद्यालीन । गुणगरिष्ठ पाठक परवीन || तिनके चरन सदा चित रहै । बहु श्रुति-भक्ति बारमी यहै ।।१५८॥ भगवत भाषित अर्थ अनूप । गनधर ग्रंथित ग्रंथ-सरूप ।। तहां भक्ति बरतै अमलान । प्रवचन-भक्ति तेरमी जान ||१५९।। षट आवश्यक क्रिया विधान । तिनकी कबही करै न हान ।। सावधान बरतै थिरचित्त । सो चौदहमी परम पवित्त ||१६०॥ करि जप तप पूजा व्रत भाव । प्रगट करै जिन-धर्म-प्रभाव || सोई मारग परभावना । यहै पंचदसमी भावना ||१६१।। चार प्रकार संघसौं प्रीति | राखै गाय-वच्छकी रीति || यही सोलमी सब सुखदाय । प्रवचन-वात्सल्य अभिधाय ||१६२।।
दोहा । सोलहकारन भावना, परम पुन्यको खेत । भिन्न भिन्न अरु सोलहों, तीर्थंकरपद हेत ।।१६३।। बंध-प्रकृति जिनमत विपैं, कहीं एकसौ बीस ।। सो सत्रह मिथ्यातमैं, बांधत है निसदीस ||१६४।।
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