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६४/पार्श्वपुराण
गुफा मसान सैल तरु कोटर, निवसैं जहां सुद्धि भू हेरें । परिमित काल रहै निहचल तन, बारबार आसन नहिं फेरै ।। मानुष देव अचेतन पसुकृत, बैठे विपत आन जब धेरै । ठौर न तजै भलै थिरता पद, ते गुरु सदा बसौ उर मेरे ||१२०|| जे महान सोनेके महलन, सुंदर सेज सोय सुख जोवै । ते अब अचलअंग एकासन, कोमल कठिन भूमिपर सोवै ।। पाहन-खंड कठोर कांकरी, गड़त कोर कायर नहिं होर्से । ऐसी सयन-परीषह जीतत, ते मुनि कर्मकालिमा धो ||१२१।। जगत जीव जावंत चराचर, सबके हित सबके सुखदानी । तिनैं देख दुर्वचन कहैं दुट, पाखंडी ठग यह अभिमानी ॥ मारौ याहि पकरि पापीकौं, तपसी-भेष चोर है छानी । ऐसै वचन-बाणकी वर्षा, छिमाढाल ओ. मुनिग्यानी ।।१२२।। निरपराध निर्वैर महा मुनि, तिनकौं दुष्टलोग मिलि मारैं । केई बैंच थंभसौं बाँधत, केई पावक मैं परजाएँ ।। तहां कोप नहिं करहिं कदाचित, पूरब कर्म-विपाक विचारै ।। समरथ होय सहैं बध बंधन, ते गुरु सदा सहाय हमारे ||१२३।। घोर वीर तप करत तपोधन, भयौ खीन सूखी गल बाहीं । अस्थि-चाम अवसेस रह्यौ तन, नसाजाल झलक्यौ जिसमाहीं । ओषधि असन पान इत्यादिक, प्रान जाय पर जांचत नाहीं । दुद्धर अजाचीक व्रत धारे, करहिं न मलिन धरम परछाहीं ।।१२४।। एक बार भोजनकी बिरियाँ, मौन साधि बसतीमैं आवै । जो नहिं बनै जोग भिच्छाबिधि, तौ महंत मन खेद न लावै । ऐसे भ्रमत बहत दिन बीतें, तब तप विरद भावना भावें । यों अलाभकी परम परीषह, सहैं साधु सोई सिव पावै ।।१२५।। बात पित्त कफ सोनित चारौं, ये जब घटें बढ़े तनमाहैं । रोगसंजोग सोग तन उपजत, जगत जीव कायर हो जाहैं || ऐसी व्याधि वेदना दारुन, सहैं सूर उपचार न चाहैं ।। आतम-लीन देहसौं विरकत, जैन जती निज नेम निबाहैं ||१२६।।
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