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चौथा अधिकार/६३
सीतकाल सबही जन कांपैं, खड़े जहां बन बिरछ डहे हैं । झंझा बायु बहै बरसा रित, बरसत बादल झूम रहे हैं || तहां धीर तटिनीतट चौबट, ताल-पालपै कर्म दहे हैं । सहैं सँभाल सीतकी बाधा, ते मुनि तारनतरन कहे हैं ||११३|| भूख प्यास पीड़े उर अंतर, प्रजलै आंत देह सब दागै । अगनिसरूप धूप ग्रीषमकी, ताती बाल झालसी लागै ।। तपै पहार ताप तन उपजै, कोपै पित्त दाहजुर जागै । इत्यादिक ग्रीषमकी बाधा, सहत साधु धीरज नहिं त्यागै ॥११४।। डांस मांस माखी तन काटें, पीड़ें बनपंछी बहुतेरे । डसैं ब्याल विषयाले बीछू, लगैं खजूरे आन घनेरे ॥ सिंह स्याल सुंडाल सतावै, रीछ रोझ दुख देहिं बड़ेरे । ऐसे कष्ट सहैं समभावन , ते मुनिराज हरौ अघ मेरे ||११५।। अंतर विषय-वासना बरतै, बाहर लोकलाज भय भारी । तातें परम दिगंबर मुद्रा, धर नहिं सकैं दीन संसारी ।। ऐसी दुद्धर नगन परीषह, जीतें साधु सीलव्रतधारी । निर्विकार बालकवत निर्भय, तिनके पायन ढोक हमारी ||११६।। देस कालको कारन लहिकै, होत अचैन अनेक प्रकारै । तब तहां खिन्न होहिं जगवासी, कलमलाय थिरतापद छारै ॥ ऐसी अरति परीषह उपजत, तहां धीर धीरज उर धारें । ऐसे साधनको उर अंतर, बसौ निरंतर नाम हमारे ||११७।। जे प्रधान केहरिकौं पकरें, पन्नग पकरि पांवसौं चंपत । जिनकी तनक देखि भौं बांकी, कोटिक सूर दीनता जंपत ।। ऐसो पुरुष-पहार-उड़ावन, प्रलय-पवन तिय-वेद पयंपत । धन्य धन्य ते साधु साहसी, मन-सुमेरु जिनकौ नहिं कंपत ||११८।। चार हाथ परखान निरखि पथ, चलत दिष्ट इत उत नहिं तानैं । कोमल पांय कठिन धरती पर, धरत धीर बाधा नहिं मानें ।। नाग तुरंग पालकी चढ़ते, ते सवाद उर यादि न आनैं । यों मुनिराज भरै चर्यादुख, तब दिढ़कर्म कुलाचल भानैं ।।११९।।
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