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६२/पार्श्वपुराण
छप्पय ।
निज सरीर ममता परिहरे । काउसग्ग मुद्रा दिढ़ धरै ॥ अन्तर बाहर परिग्रह छार । सोई तप व्युत्सर्ग उदार ||१०६।। आरत रौद्र निवारै सोय | धर्म सकल ध्यावै थिर होय ।। जहां सकल चिंता मिट जाहिं । वही ध्यान-तप जिनमत माहिं ।।१०७||
दोहा । यह बारह बिध तप विषम, तपै महामुनि धीर ।। सहै परीषह बीस दो, ते अब बरनौं बीर ||१०८।।
छप्पय । छुधा तृषा हिम उसन, डंस मंसक दुखभारी । निरावरन तन अरति, खेद उपजावन नारी || चरिया आसन सयन, दुष्ट वायक वध बंधन | जांचै नहीं अलाभ रोग, तिन-फरस निबंधन ।। मल जनित मान-सनमान वस, प्रग्या और अग्यान कर || दरसन मलीन बाईस सब, साधु परीषह जान नर ||१०९।।
दोहा । सूत्र पाट अनुसार ये, कहे परीषह नाम || इनके दुख जे मुनि सहैं, तिनप्रति सदा प्रनाम ||११०।।
सोमावती छंद। अनसन ऊनोदर तप पोषत, पाखमास दिन बीत गये हैं । जोग न बनै जोग भिच्छाबिधि, सूख अंग सब सिथिल भये हैं । तब बहु दुसह भूखकी वेदन, सहत साधु नहिं नेक नये हैं । तिनके चरनकमल प्रति दिन दिन, हाथ जोरि हम सीस ठये हैं ||१११|| पराधीन मुनिवरकी भिच्छा, परघर लेहिं कहैं कछु नाहीं । प्रकृति-विरोधि पारना भुंजत, बढ़त प्यासकी त्रास तहांहीं । ग्रीषमकाल पित्त अति कोपै, लोचन दोय फिरे जब जाहीं । नीर न चहैं सहैं ऐसे मुनि, जयवंते बरतौ जगमाहीं ।।११२।।
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