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________________ चौथा अधिकार/६१ जिनके सुनत बँधै सुभध्यान । सेवत पद लहिये निरवान || तप बिन तीनकाल तिहुँ लोय । कर्मनास कबही नहिं होय ||९४।। दिनसौं लेय बरस लगि करै । चार प्रकार असन परिहरै ।। राग-रोग-निर्दलन उपाय । सो अनसन भाख्यौ जिनराय ||९५|| पौन अर्ध चौथाई टेक । एक ग्रास अथवा कन एक || ऐसी बिध जो भोजन लेत । ऊनोदर आलस हर लेत ।।९६।। जैसी प्रथम प्रतिग्या करै । ताही बिध भोजन आदरै ।। सो कहिये व्रत-परि-संख्यान | आसाव्याधि-विनासन जान ||९७|| लवनादिक रस छांरि उपाध | नीरस भोजन भुंजै साध || रस-परित्याग कहावै एम । इंद्रिय-मद नासन यह नेम ||९८|| सून्यगेह गिरि गुफा मसान | नारि-नपुंसक-वर्जित थान || बसै भिन्न-सयनासन सोय | यासौं सिद्धि ध्यानकी होय ||९९।। ग्रीषम काल बसै गिरि-सीस । पावसमैं तरुवर-तल दीस ।। सीत-समय तटिनी-तट रहै । काय-कलेस कहावै यहै ||१००। दोहा। या तपके आचरनसौं, सहनसील मुनि होय । अब अन्तर-तप-भेद छह, कहूं जिनागम जोय ||१०१।। चौपाई। जो प्रमादवस लागै दोष । सोधै ताहि छोरि छल रोष ।। आचारज वानी अनुसार | यही प्रथम प्राछित तप सार ||१०२।। जे गुनजेठे साधु महंत । दरसन ग्यानी चारितवंत ।। तिनकी विनय करै मनलाय । विनय नाम तप सो सुखदाय ||१०३।। रोगादिक पीड़ित अविलोय । बाल बिरध मुनिवर जो होय ।। सेव करै निजसंजम राखि । सो वैयाव्रत आगमसाखि ||१०४|| सकतिसमान सकल गुन ठाठ । करै साधु परमागम-पाठ ॥ परमोत्तम तप सो सिज्झाय | जासौं सब संसय मिट जाय ||१०५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002686
Book TitleParshvapurana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi, Nathuram Premi
PublisherSanmati Trust Mumbai
Publication Year2001
Total Pages175
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size6 MB
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