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६०/पार्श्वपुराण
पंच महाव्रत-संचरन, समिति पंच परकार । प्रबल पंच इंद्री-विजय, धार निर्जरा सार ||८२।। चौदह राजु उतंग नभ, लोकपुरुष संठान । तामैं जीव अनादिसौं, भरमत है बिन ग्यान ||८३।। जाँचै सुरतरु देहिं सुख, चिंतत चिंतारैन । बिन जाँचैं बिन चिंतनै, धर्म सकल सुख-दैन ||८४|| धन-कन-कंचन-राजसुख, सबै सुलभ करि जान । दुर्लभ है संसारमैं, एक जथारथ ग्यान ||८५।।
चौपाई। इहिबिध भूप भावना भाय । हित उद्यम चिंत्यौ मन लाय || सबसौं मोह ममत निरवारि । उठ्यौ धीर धीरज उर धारि ॥८६॥ जेठे सुतकौं दीनौं राज | आप चल्यौ सिव-साधन काज ॥ सागरदत्त मुनीसुर पास । संजम लियौ तजी जगआस ||८७|| घनैं भूप भूपतिके संग । धरे महाव्रत निर्भय अंग || अब आनंद महामुनि धीर | बननिवास बिचरै बन बीर ||८८|| दुद्धर तप बारह बिध करै । दुबिध संग-ममता परिहरै ।। तिनके नाम कहूं कछु धार | जिनसासन जिनको विस्तार ||८९।। प्रथम महातप अनसन नाम | दूजौ ऊनोदर गुनधाम || तीजौ है व्रतपरिसंख्यान । रसपरित्याग चतुर्थम मान ||९०॥ पंचम भिन-सयनासन सार | कायकलेस छठौ अविकार || यह षटबिध बाहज तप जान । अब अन्तर तप सुनौ सुजान ।।९१।। पहले प्राछित विनय दुतीय । वैयावत तीजौ गन लीय ।। चौथौ अन्तरंग सिज्झाय । पंचम तप व्युत्सर्ग बताय ||९२।। पष्टम ध्यान हरै सब खेद । ये अन्तर तपके सब भेद || अब इनको संछेप सरूप । सुनौ संत तजि भाव विरूप ||९३।।
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