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चौथा अधिकार/६५
सूखे तिन अरु तीखन कांटे, कठिन कांकरी पांय बिदारै । रज उड़ि आय परै लोचनमैं, तीर फांस तन पीर विथारै ।। तापर पर सहाय नहिं वांछत, अपने करसौं काढ़ न डारै ।। यों तिन-परस-परीषह विजई, ते गुरु भव भव सरन हमारे ||१२७|| जावजीव जलन्हौन तज्यौ जिन, नगनरूप बनथान खरे हैं । चलै पसेव धूपकी बिरियाँ, उड़त धूल सब अंग भरे हैं ।। मलिन देहकौं देखि महामुनि, मलिन भाव उर नाहिं करे हैं । यों मलजनित परीषह जीतें, तिनैं हाथ हम सीस धरे हैं ||१२८|| जे महान विद्यानिधि विजई, चिर तपसी गुन अतुल भरे हैं । तिनकी विनय वचनसौं अथवा, उठि प्रनाम जन नाहिं करे हैं । तौ मुनि तहाँ खेद नहिं मानें, उर मलीनता भाव हरे हैं । ऐसे परमसाधुके अहनिसि, हाथ जोरि हम पांय परे हैं ||१२९।। तर्क छन्द व्याकरन कलानिधि, आगम अलंकार पढ़ जानैं । जाकी सुमति देखि परवादी, बिलखे होहिं लाज उर आनें । जैसैं नाद सुनत केहरिकौ , बनगयन्द भागत भय मानैं । ऐसी महाबुद्धिके भाजन, पै मुनीस मद रंच न ठानैं ||१३०|| सावधान बरतें निसिवासर, संजम-सूर परम वैरागी । पालत गुपति गये दीरघ दिन, सकल संग-ममता परित्यागी । अवधिग्यान अथवा मनपरजय, केवल-किरन अजौं नहिं जागी । यों विकलप नहिं करहिं तपोधन, सो अग्यानविजई बड़भागी ||१३१।। मैं चिर काल घोर तप कीनौं, अजौं, रिद्धि-अतिसय नहिं जागै । तपबल सिद्ध होहिं सब सुनिये, सो कछु बात झूठसी लागै । यों कदापि चितमैं नहिं चिंतत, समकित-सुद्ध सांत-रस पागे । सोई साधु अदर्सनविजई, ताके दरसनसौं अघ भागे ||१३२।।
कवित्त इकतीसा । ग्यानवरणीसौं दोय प्रग्या अग्यान होय, एक महामोहते अदरस बखानिये ।
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