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________________ ५६/पार्श्वपुराण राग-द्वेष-वर्जित अमल, सुखदुखदाता नाहिं । दर्पनवत भगवान हैं, यह आनौं उरमाहिं ||३४|| तिनकौ चिंतन ध्यान जप, थुति पूजादि विधान ।। सुफल फलै निज भावसौं, है मुकती सुखदान ||३५।। जैसे गुन प्रभुके कहे, ते जिन मुद्रामाहिं । थिरसरूप रागादिबिन, भूषन आयुध नाहिं ।।३६।। जद्यपि सिल्पीकृत कृतम, जिनवरबिम्ब अचेत । तदपि सही अंतरविर्षे, सुभ भावनकों हेत ॥३७।। और एक दिष्टांत अब, सुन अवनीपति सोय । जियके उर दृष्टांतसौं, संसै रहै न कोय ||३८|| चौपाई। गनिका धरी चितामैं जाय । बिसनी पुरुष देखि पछताय ।। जो जीवत मुझ मिलती जोग । तो मैं करतौ वांछित भोग ||३९।। स्वान कहै उर क्यों यह दही । मैं निज भच्छन करतौ सही ।। पुनि तिहि देख कहैं मुनिराय | क्यों न कियौ तप यह तन पाय ||४०॥ इहि बिध देखि अचेतन अंग | उपजै भाव पाय परसंग || तिन ही भावनके अनुसार । लाग्यौ फल तिनकौं तिहिं बार ॥४१॥ दोहा । व्यसनी नर नरकहिं गयौ, लह्यौ भूखदुख स्वान || साधु सुरग पहुँचे सही, भावनको फल जान ||४२।। चौपाई। यों जिनबिंब अचेतन-रूप | सुखदायक तुम जानो भूप || कारनसम कारज संपजै । यामैं बुध संसै नहिं भजै ।।४३।। दोहा । जैसैं चिंतामनि रतन, मन-वांछित दातार । तथा अचेतन बिंब यह, वांछा पूरनहार ||४४|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002686
Book TitleParshvapurana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi, Nathuram Premi
PublisherSanmati Trust Mumbai
Publication Year2001
Total Pages175
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size6 MB
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