________________
चौथा अधिकार/५५
चौपाई। सुनि राजा मंत्री उपदेस । नगर महोच्छव कियौ विसेस ।। करि सनान जिनमंदिर जाय । जैनबिंब पूजे बिहसाय ||२२|| बहुबिध पूजा दरब मनोग । धरे आन जिन-पूजन जोग || भाव भक्तिसौं मंगल ठयौ । राजा-के मन संसय भयौ ।।२३।। विपुलमती मुनिवर तिहिं थान । दरसन कारन आये जान || तिनैं पूजि नृप पूछे येह । भो मुनींद्र मुझ मन संदेह ।।२४।।
दोहा । प्रतिमा धात पखानकी, प्रगट अचेतन अंग । पूजक जनकौं पुन्यफल, क्यों कर देय अभंग ||२५|| तुम जगमैं संसय-तिमिर, दूरकरन रविरूप | यह मुझ भरम मिटाइये, करै बीनती भूप ||२६|| तब ग्यानी गनधर कहैं, समाधान सुन राय । भवि-जनकौं-प्रतिमा भगति, महापुन्य-फलदाय ||२७|| भाव सुभासुभ जीवके, उपजै कारन पाय । पुन्य पाप तिनसौं बंधै, यों भाष्यौ जिनराय ||२८|| कुसुम बरनकौ जोग लहि, जैसे फटिक पखान । अरुन-स्याम दुतिकौं धरै, यही जीवकी बान ।।२९।। सो कारन है दोय बिध, अंतरंग बहिरंग || तिनके ही उर आय है, जे समझें सरवंग ||३०|| बाहिज कारन जानियौ, अंतरंगकौ हेत । सोई अंतरभाव नित, कर्मबंधकौं देत ||३१|| जिन परिनामन पुन्य बह, बधैं अन्यथा नाहिं । तिन भावनकौं निमित है, जिनप्रतिमा जगमाहिं ||३२|| वीतराग मुद्रा निरखि, सुधि आवै भगवान । वही भाव कारन महा, पुन्यबंधकौ जान |३३।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org