________________
५४/पार्श्वपुराण
दोहा। जोबन वय संपति बड़ी, मिल्यौ सकल सुखजोग । 'महामंडली' पद लह्यौ, पूरब-पुन्य-नियोग ||११||
चौपाई। अब सुन आठ जातिके भूप | जिनकौ जिनमत कह्यौ सरूप ।। कोटि ग्रामको अधिपति होय । राजा नाम कहावै सोय ||१२|| न पांचसौ राजा जाहि । अधिराजा नृप कहिये ताहि ।। सहस राय जिस मानें आन | महाराज राजा वह जान ||१३|| दोय सहस नृप न0 असेस । मंडलीक वह अर्ध नरेस ।। चार सहस जिस पू0 पाय । सोई मंडलीक नरराय ||१४|| आठ सहस भूपतिकौ ईस | मंडलीक सो महा महीस ।। सोलह सहस न भूपाल । सो अधचक्री पुन्यविसाल ||१५|| सहस बतीस आन जिस बहैं ! ताहि सकलचक्री बुध कहैं । इनमैं श्री आनंद नरेस ! महामंडली पद परमेस ।।१६।।
सोरठा। आठ सहस सुखहेत, नृप नछत्र सेवें सदा । कीरति-किरन-समेत, सोहै नरपतिचंद्रमा ||१७||
चौपाई। एक दिना आनंद महीस । बैठ्यौ सभा सिंहासनसीस ॥ मंत्री तहां स्वामिहित नाम । कहै विवेकी सुवचन ताम ||१८॥ स्वामी यह वसंत रितुराज । सब जन करें महोच्छवकाज || नंदीसुर-व्रत अवसर येह । करिये प्रभु-पूजा जिन गेह ||१९॥
दोहा । जिनपूजाकी भावना, सब दुखहरन-उपाय । करते जो फल संपजै, सो बरन्यौ किमि जाय ।।२१।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org