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________________ /५३ चौथा अधिकार आनन्दराय इन्द्रपद प्राप्ति वर्णन | सोरठा मारुथल संसार, वामानंदन कलपतरु । वांछित फल दातार, सुखकामी सेवो सदा ||१|| चौपाई। इसही जंबूदीप मझार । भरतखंड दच्छिन दिसि सार || कौसलदेस बसै अभिराम | नगर अजोध्या उत्तम ठाम ||२|| आरजखंड माहिं परधान । मध्यभाग राजै सुभथान || गढ़ गोपुर खाई गृहपांति । घनबनसौं सोहै बहुभांति ||३|| ऊंचे जिनमंदिर मनहरै । कंचन कलस धुजा फरहरै ।। वज्रबाहु भूपति तिहिं थान | वर-इख्वाकवंस-नभ-भान ||४|| जैनधर्म पालै बढ़भाग | जिनपद-कमलनि मधुप सराग ।। प्रभाकरी तिय ताघर सती । जीती जिन रंभा-रति-रती ||५|| दोहा । यथा हंसके वंसकौं, चाल न सिखवै कोय । त्यों कुलीन नर-नारिक, सहज नमन-गुन होय ॥६॥ चौपाई। वह अहमिंद्र तहातैं चयौ । तिनकै सुदिन पुत्र सो भयौ ।। नांव धस्यौ आनंदकुमार | अतुल तेज सब लच्छन सार ||७|| सभग सोम श्रीवंत महान । बलं-वीरज-धीरजगुनथान ।। नरनारी-मन-मानिक-चोर । देखत नयन रहैं जा ओर ||८|| जाके सुगुन सेस कह थकै । और कौन बरनन कर सकै ।। जोबनवंत जनक तिस देख | ब्याह महोत्सव कियौ विसेख ।।९।। परनी राजसता बह भाय । जिनकी छबि बरनी नहिं जाय ।। क्रमसौं कमर पितापद पाय | बलसौं बस कीये बह राय ||१०|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002686
Book TitleParshvapurana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi, Nathuram Premi
PublisherSanmati Trust Mumbai
Publication Year2001
Total Pages175
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size6 MB
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