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________________ ५० / पार्श्वपुराण सागरबंध प्रमानथिति, छिनछिन तीखन त्रास । ये दुख देखें नारकी, परवस परे निवास ॥२०५॥ जैसी परवस बेदना, सहै जीव बहु भाय | स्ववस सहै जो अंस भी, तौ भवजल तिरजाय || २०६ || ऐसे नरकहिं नारकी, भयौ भील दुट भाव । सागर सत्ताईसकी, धारी मध्यम आव || २०७|| सागर काल प्रमान अब, बरनौं औसर पाय । जिनसौं नरकनिवासकी थिति सब जानी जाय ॥२०८॥ , चौपाई | पहले तीन पल्यके भेव । एक चित्तकरि सो सुन लेव । जिनसौं सागर उपजै सही । जथारीत जिनसासन कही ॥ २०९॥ सोरठा । प्रथम पल्य ब्योहार, दुतिय नाम उद्धार भन । अर्धा त्रितिय विचार, अब इनको विस्तार सुन || २१०|| चौपाई | पहले गोल कूप कलपिये । जोजन बड़े मान थरपिये । इतना ही करिये गंभीर । बुधिबल ताहि भरौ नर धीर ||२११|| सात दिवसके भीतर जेह । जनैं भेड़के बालक लेह । उत्तम भोगभूमिके जान । तिनके रोमअग्र मनआन || २१२ ॥ ऐसे सूच्छम करिये सोय । फेरि खंड जिनको नहिं होय । तिन सौं महाकूप वह भरौ । बारंबार कूट दिढ़ करौ ॥ २१३ || तिन रोमनकी संख्या जान । पैंतालीस अंक परवान | ते श्रीजिनसासनमैं कहे । कर प्रतीत जैनी सरदहे ॥ २१४॥ चामर छंद । चार एक तीन चार पांच दो छ तीन ले । सुन्न तीन सुन्न आठ दोय अंक दे ।। Jain Education International सुन्न For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002686
Book TitleParshvapurana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi, Nathuram Premi
PublisherSanmati Trust Mumbai
Publication Year2001
Total Pages175
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size6 MB
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