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________________ तीसरा अधिकार/५११ तीन एक सात सात सात चार नौ करौ । पांच एक दोय एक नौ समार दो धरौ ||२१५|| दोहा । सात बीस ये अंक लिखि, और अठारह सुन्न । प्रथम पल्यके रोमकी, यह संख्या परिपुन्न ॥२१६।। ___ चौपाई। सौ सौ बरस बीत जब जाहिं । एक एक काढ़ौ यामाहिं । ऐसी बिध सब करते सोय | कूप उदर जब खाली होय ॥२१७।। जो कुछ लगै काल परवान । सो ब्योहार पल्य उरआन । प्रथम पल्य सबसे लघुरूप । बीजभूत भाख्यौ जिनभूप ॥२१८।। दोहा। संख्या कारन जिन कह्यौ, और न यासौं काज | दुतिय पल्य विवरन सुनों, जो भाख्यौ जिनराज ॥२१९।। चौपाई। पूरवकथित रोम सब धरौ । तिनके अंस कल्पना करौ । बरस असंख कोटिके जिते । समय होहिं आतम परिमिते ||२२०।। एक एकके तावत मान | करौ भाग विकलप मन आन । याबिध ठान रोमकी रास । समय समय प्रति एक निकास ||२२१।। जितनौं काल होय सब येह । सो उद्धार पल्य सुन लेह । याकै रोमनसौं परवान । दीपोदधिकी संख्या जान ||२२२।। दोहा । कोड़ाकोड़ि पचीसके, पल्य रोम जावंत । तितनैं दीप समुद्र सब, बरनै जैनसिधंत ।।२२३।। चौपाई। अब सुन त्रितिय पल्यकी कथा | श्रीजिनसासन बरनी जथा । दुतिय पल्यके अमित अपार । रोम अंस लीजै निर्धार ||२२४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002686
Book TitleParshvapurana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi, Nathuram Premi
PublisherSanmati Trust Mumbai
Publication Year2001
Total Pages175
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size6 MB
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