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४८/पार्श्वपुराण
जिन उद्धत अभिमानसौं, कीनैं परभव पाप तपत लोह - आसन विषै, त्रास दिखावैं थाप ||१८२||
ताती पुतली लोहकी, लाय लगावैं अंग |
प्रीत करी जिन पूर्वभव पर कामिनिके संग || १८३ ||
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लोचनदोषी जानिके, लोचन लेहिं निकाल । मदिरापानी पुरुषकौं, प्यावैं तांबो गाल ||१८४||
जिन अंगनसौं अघ किये, तेई छेदे जाहिं । पल-भच्छन के पापतैं, तोड़ि तोड़ि तन खाहिं ||१८५||
केई पूरब बैरके, याद दिवावैं नाम ।
कह दुर्वचन अनेक बिध, करैं कोप संग्राम ||१८६||
भये विक्रिया देहसौं, बहुविध आयुधजात । तिनहीसौं अति रिस भरे, करें परस्पर घात ||१८७ ||
सिथिल होय चिर युद्धतैं, दीन नारकी जाम । हिंसानंदी असुर टुट, आन भिरावैं ताम ॥१८८॥
सोरठा ।
तृतिय नरक परजंत, असुरादिक दुख देत हैं । भाख्यौ जिनसिद्धंत, असुरगमन आगे नहीं ||१८९॥
दोहा | इहिबिध नरक निवासमैं, चैन एकपल नाहिं । तपैं निरंतर नारकी, दुख दावानल माहिं ॥१९०||
मार मार सुनिये सदा, छेत्र महा दुरगंध | बहै बात असुहावनी, असुध छेत्र संबंध ||१९१|| तीन लोकको नाज सब, जो भच्छन कर लेय । तौहू भूख न उपसमै, कौन एक कन देय ॥१९२॥ सागरके जलसौं जहां, पीवत प्यास न जाय । लहै न पानी बूंदभर, दहै निरंतर काय ॥१९३॥
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