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४६/पार्श्वपुराण
पूरब संतन यों कही, करनी चालै लार । सौ अब आँखन देखिये, तब न करी निरधार ||१५७।। जिस कुटुंबके हेत मैं, कीनैं बहुबिध पाप । ते सब साथी बीछड़े, पस्यौ नरकमैं आप ||१५८॥ मेरी लछमी खानकौं, सीरी भये अनेक । अब इस बिपत बिलापमैं, कोउ न दीखै एक ||१५९।। सारस सर-वर तजि गये, सूखो नीर निराट । फलबिन बिरख बिलोककै, पंछी लागे बाट ||१६०|| पंचकरन-पोषन अरथ, अनस्थ किये अपार । ते रिपु ज्यों न्यारे भये, मोहि नरकमैं डार ||१६१।। तब तिलभर दुख सहनकौं, हुतो अधीरज भाव । अब ये कैसे दुसह दुख, भरिहौं दीरघ आव ||१६२।। अघ बैरीके बस पस्यौ, कहा करूं कित जाउं । सुनै कौन पूछू किसे, सरन कौन इस ठाउं ||१६३।। यहां कछू दुख हतनकौ , उक्त उपाव न भूर । थिति बिन बिपत-समुद्र यह, कब तिरहौं तट दूर ||१६४।। ऐसी चिंता करत हू, बट्टै बेदना एम | घीव तेलके जोगते, पावक प्रजुलै जेम ||१६५।।
सोरठा । इहिबिध पूरब पाप, प्रथम नारकी सुधि करें । दुख उपजावन जाप, होय विभंगा अवधितैं ||१६६।।
दोहा । तब ही नारकि निर्दई, नयौ नारकी देख । धाय धाय मारन उटैं, महादुष्ट दुरभेख ||१६७।। कब क्रोधी कलही सकल , सबके नेत्र फुलिंग । दुःख देनकौं अति निपुन, निठुर नपुंसकलिंग ||१६८॥
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