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________________ सरसोंसम सुखहेत तब, भयौ लंपटी जान | ताहीको अब फल लग्यौ, यह दुख मेरु समान ( ( १४४ ॥ ॥ कंदमूल मद मांस मधु, और अभच्छ अनेक । अच्छन- बस भच्छन किये, अटक न मानी एक || १४५|| तीसरा अधिकार/४५ जल थल नभचारी विबिध, बिलवासी बहु जीव | मैं पापी अपराध बिन, मारे दीन अतीव ॥१४६॥ नगरदाह कीनौं निठुर, गाम जलाये जान । अटवीमैं दीनी अगनि, हिंसा कर सुख मान || १४७ || अपने इंद्रीलोभकौं, बोल्यौ मुषा मलीन । कलपित ग्रंथ बनायकै, बहकाये बहु दीन ॥१४८॥ दाव घात परपंचसौं पर लछमी हर लीय । " छलबल हटबल दरबबल, परवनिता बस की ||१४९ ॥ बढ़ी परिग्रहपोट सिर, घटी न घटकी चाह । ज्यों ईंधन के जोगसौं, अगनि करै अतिदाह || १५०|| बिन छान्यौ पानी पियौ, निसि भुंज्या अविचारि । देवदरब खायै सही, रुद्रध्यान उर धारि ||१५१|| कीनी सेव कुदेवकी, कुगुरुनकौं गुरु मानि । तिनहींके उपदेशसौं, पशु हो मैं हित जानि ॥१५२|| दियौ न उत्तमदान मैं, लियौ न संजम भार । पियौ मूढ़ मिथ्यातमद, कियौ न तप जगसार ॥१५३॥ जो धर्मीजन दयाकरि, दीनी सीख निहोर । मैं तिसौं रिस कर अधम, भाखे बचन कठोर || १५४ || करी कमाई परजनम, सो आई मुझ तीर । हा हा अब कैसे धरूं, नरक धरामैं धीर ॥१५५॥ दुर्लभ नरभव पायकैं, केई पुरुष प्रधान । तपकरि साधें सुरग सिव, मैं अभागि यह थान ॥१५६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002686
Book TitleParshvapurana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi, Nathuram Premi
PublisherSanmati Trust Mumbai
Publication Year2001
Total Pages175
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size6 MB
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