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४४/पार्श्वपुराण
तिनमैं उपजै नारकी, तल सिर ऊपर पाय | विषम वज्र कंटकमई, परै भूमिपर आय ||१३२।। जो विषैल बीछू सहस, लगे देह दुख होय । नरक धराके परसतें, सरिस वेदना सोय ||१३३।। तहां परत परवान अति, हाहा करते एम | ऊँचे उछलैं नारकी, तये तबा तिल जेम ||१३४।।
सोरठा । नरक सातवें माहिं, उछलन जोजन पांचसौ । और जिनागम माहिं, जथाजोग सब जानियो ||१३५।।
दोहा। फेर आन भूपर परै, और कहां उड़ि जाहि । छिन्न भिन्न तन अति दुखित, लोट लोट बिललाहि ||१३६।। सब दिसि देखि अपूर्व थल, चकित चित्त भयवान | मन सोचै मैं कौन हूं, पस्यौ कहां मैं आन ||१३७॥ कौन भयानक भूमि यह, सब दुख-थानक निंद । रुद्ररूप ये कौन हैं, निठुर नारकी वृंद ||१३८।। काले बरन कराल मुख, गुंजा लोचन धार । हुंडक डील डरावने, करैं मार ही मार ||१३९।। सुजन न कोई दिठ परै, सरन न सेवक कोय । ह्यां सो कछु सूझै नहीं, जासौं छिन सुख होय ।।१४०।। होत विभंगा अवधि तब, निजपरकौं दुखकार | नरक कूपमैं आपकौं, पस्यौ जान निरधार ||१४१।। पूरब पाप-कलाप सब, आप जाप कर लेय । तब विलापकी ताप तप, पश्चात्ताप करेय ||१४२।। मैं मानुष परजाय धरि, धन-जोबन-मदलीन । अधम काज ऐसे किये, नरक-बास जिन दीन ।।१४३।।
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