________________
कहीं रतन बिमानमैं, कबहीं महल मझार । कबहीं बनक्रीड़ा करें, मिलि अहमिंद्रकुमार ॥१२०॥ और बास निज बासतें, उत्तम दीसै नाहिं | ताही ते अमरगन, और कहीं नहिं जाहिं ॥१२१||
प्रीत भरे गुन आगरे, सुभग सोम श्रीमन्त । सात धात मलसौं रहित, लेस्या सुकल धरंत ||१२२||
तीसरा अधिकार / ४३
सब समान-संपतिधनी, सब मानैं हम इंद्र । कला ग्यान विग्यानसम, ऐसे सुर अहमिंद्र ||१२३||
सुकल वरन तन-मन-हरन, दोय हाथ परिमान । मानौं प्रतिमा फटिककी, महातेज दुतिवान ||१२४ ॥
कामदाह उरमैं नहीं, नहिं वनिताकौ राग । कल्पलोकके सुर सुखी, असंख्यातवें भाग || १२५||
सत्ताईस हजार मित, बरस बीति जब जाहिं । मानसीक आहारकी, रुचि उपजै मनमाहिं ||१२६||
साढ़े तेरह पच्छपर, लेत सुगंध उसास |
छटी अवनि लौं जिन कही, अवधि विक्रिया जास ॥१२७॥
सागर सत्ताईस मित, परम आयु तिहिं थान । सुभग सुभद्र विमानमैं, यों सुख
करै महान || १२८॥
चौपाई |
अब सो भील महादुखदाय । रुद्रध्यानसौं छोड़ी काय । मुनिहत्या- पातकतैं मस्यौ । चरम सुभ्रसागरमै पस्यौ ॥१२९ ॥
दोहा | कथा तहांकै कष्टकी, को कर सकै बखान | भुगतै सो जानै सही, कै जाने भगवान् ||१३०||
Jain Education International
दोहा | जनमथान सब नरकमैं, अंध अधोमुख जौन । घंटाकार घिनावनी, दुसह बास दुखभौन ॥१३१||
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org