________________
तीसरा अधिकार/४१
राज-समाज महा अघकारन, बैर बढ़ावनहारा । वेस्यासम लछमी अति चंचल, याकौ कौन पत्यारा ||९६।। मोह महा रिपु बैर बिचारा, जगजिय संकट डाले । घर काराग्रह वनिता बेड़ी, परिजन जन रखवाले ||९७|| सम्यकदरसन-ग्यान-चरन-तप, ये जियके हितकारी । ये ही सार असार और सब, यह चक्री चित धारी ।।९८।। छोड़े चौदह रतन नवौं निधि, अरू छोड़े संग साथी । कोड़ि अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी लख हाथी ।।९९।। इत्यादिक संपति बहुतेरी,जीरन तिन ज्यों त्यागी । नीति विचार नियोगी सुतकौं, राज दियौ बड़भागी ||१००।। होय निसल्य अनेक नृपति सँग, भूषन वसन उतारे । श्री गुरुचरन धरी जिनमुद्रा, पंच महाव्रत धारे ||१०१।। धन यह समझ सुबुद्धि जगोत्तम, धन यह धीरज भारी । ऐसी सपंति छोरि बसे बन, तिन पद ढोक हमारी ||१०२।।
दोहा । परिग्रहपोट उतारि सब, लीनौं चारित पंथ । निज सुभावमैं थिर भये, वज्रनाभि निरग्रंथ ||१०३।।
चौपाई। बारहबिध दुद्धर तप करै । दस-लच्छनी धरम अनुसरै । पढ़े अंग-पूरब सुति सार । एकाकी विचरै अनगार ||१०४।। ग्रीषमकाल बसै गिरिसीस | बरसामैं तरुतल मुनिईस । सीतमास तटिनीतट रहैं | ध्यान अगनिमैं कर्मनि दहैं ||१०५।। एक दिना बनमैं थिर काय । जोग दिये ठाड़े मुनिराय । कमठजीव अजगर-तन छोरि । उपज्यौ छठे नरक अतिघोर ||१०६।। थिति सागर बाईस प्रमान । देखे दुख जानें भगवान । पूरनआयु भोगकर मस्यौ । बनहिं कुरंग भील अवतस्यौ ।।१०७।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org