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४०/पार्श्वपुराण
कोई पुत्र बिना नित झूरै, होय मरै तब रोवै । खोटी संततिसौं दुख उपजै, क्यों प्रानी सुख सोवै ।।८३।। पुन्यउदय जिनकै तिनकौं भी, नाहिं सदा सुख साता । यों जगवास जथारथ देखत, सब दीखै दुखदाता ||८४|| जो संसारविषै सुख हो तो, तीर्थंकर क्यों त्यागें । काहे-कौं सिव-साधन करते, संजमसौं अनुरागैं ||८५।। देह अपावन अथिर धिनावन, यामैं सार न कोई । सागरके जलसौं सुचि कीजै, तो भी सुचि नहिं होई ।।८६।। सात कुधातमई मलमूरति, चामलपेटी सोहै । अंतर देखत या सम जगमैं, और अपावन को है ।।८७।। नव मलद्वार सवै निसिवासर, नांव लिय घिन आवै । व्याधि उपाधि अनेक जहां तहां, कौन सुधी सुख पावै ।।८८।। पोखत तौ दुख दोख करै सब, सोखत सुख उपजावे । दुर्जन देहसुभाव बराबर, मूरख प्रीति बढ़ावै ||८९।। राचनजोग स्वरूप न याकौ , विरचनजोग सही है । यह तन पाय महा तप कीजै, यामैं सार यही है ||९०।। भोग बुरे भवरोग बढ़ा, बैरी हैं जग जीके | बेरस होहिं विपाक समै अति, सेवत लागैं नीके ||९१।। वज्र अगनि विषसौं विषधरसौं, ये अधिके दुखदाई । धर्मरतनके चोर चपल ये, दुर्गति पंथ सहाई ॥९२।। ज्यों ज्यों भोग सँजोग मनोहर, मनवांछित जन पावै । तिसना नागनि त्यों त्यों डंकै, लहर जहरकी आवै ।।९३।। मोह उदय यह जीव अग्यानी, भोग भले कर जाने । ज्यों कोई जन खाय धतूरो, सो सब कंचन मानै ।।९४।। मैं चक्री पद पाय निरंतर, भोगे भोग घनेरे । तौ भी तनिक भये नहि पूरन, भोग-मनोरथ मेरे ।।९५।।
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