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तीसरा अधिकार/३९
सिंहासनपर बैठि नरेस | करै पुनीत धर्म उपदेस । सुजन सभाजन किंकर लोग । देय सुहित-सिच्छा सब जोग ||७१।।
दोहा । बीजराखि फल भोगर्दै, ज्यौं किसान जगमाहिं । त्यों चक्रीनृप सुख करै, धर्म बिसारे नाहिं ।।७२।।
नरेन्द्र अथवा जोगीरासा । इहिविध राज करै नरनायक, भोगै पुन्य विसालो । सुखसागरमै रमत निरंतर, जात न जानै कालो ||७३।। एक दिना सुभ कर्म-सँजोगे, छेमंकर मुनि बंदे । देखे श्रीगुरुके पदपंकज, लोचन अलि आनंदे ||७४।। तीन प्रदच्छन दे सिर नायौ, करि पूजा थुति कीनी । साधु समीप विनय कर बैठ्यौ,पाँयनमैं दिठ दीनी ।।७५।। गुरु उपदेस्यौ धर्म सिरोमनि, सुनि राजा बैरागे । राज रमा 'वनितादिक जे रस, तेरस बेरस लागे ||७६।। मुनि-सूरज-कथनी किरनावलि, लगत भरमबुध भागी । भव-तन-भोगसरूप विचारें, परम-धरम-अनुरागी ||७७|| इस संसार महाबनभीतर, भ्रमते ओर न आवै । जामन-मरन-जरा-दों दाझ्यौ, जीव महादुख पावै ।।७८|| कबही जाय नरकथिति भुंजै, छेदन भेदन भारी | कबही पसु परजाय धरै तहँ, वध बंधन भयकारी ||७९।। सुरगतिमैं परसंपति देखै, रागउदय दुख होई । मानुष जोनि अनेक विपतिमय, सर्वसुखी नहिं कोई ||८०|| कोई इष्टवियोगी बिलखै, कोई असुभ सँजोगी । कोइ दीन दारिद्र बिगूचे, कोई तनके रोगी ।।८१।। किसही घर कलिहारी नारी, कै बैरी सम भाई । किसहीकै दुख बाहर दीखै, किसही उर दुचिताई ॥८२।।
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