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३८/पार्श्वपुराण
विस-मोचिनी पादुका दोय । परपदसौं विष मुंचैं सोय । अजितंजै स्थ महारवन्न । जलपै थलवत करै गवन्न ||५९।। वज्रकांड चक्रीधर चाप । जाहि चढ़ावत नरपति आप । बान अमोघ जबै कर लेत । रनमैं सदा विजय वर देत ॥६०॥ विकट वज्रतुंडा अभिधान । सत्रुखंडिनी सकती जान । सिंहाटक बरछी बिकराल | रतनदंड लागी रिपुकाल ||६१।। लोहबाहिनी तीखन छुरी | जिमि चमकै चपलादुति दुरी । ये सब वस्तुजाति भूमाहिं । चक्री छूट और घर नाहिं ॥६२।।
दोहा । मनोवेग नामा कणय (?), ग्रंथन कह्यौ विख्यात । खेटभूतमुख नाम है, दोनों आयुध जात ||६३।।
चौपाई। आनंदन भेरी दस दोय । बारह जोजन लौं धुनि होय । वज्रघोस पुनि जिनको नाम । बारह पटह नृपतिके धाम ||६४।। वर गंभीरावर्त गरीस | सोभनरूप संख चौवीस | नानावरन धुजा रमनीय । अड़तालीस कोट मित कीय ॥६५।। इत्यादिक बहुवस्तु अपार । बरनन करत न लहिये पार | महलतनी रचना असमान । जिनमत कही सु लीजै जान ||६६।।
दोहा । चक्री नृपकी संपदा । कहै कहां लौं कोय । पुन्यबेल पूरब बई, फली सांघनी सोय ॥६७।। इहि विध वज्रनाभि नरराय । करै भोग चक्रीपद पाय । धर्मध्यान अहनिसि आचरै । निर्मल नीतिपंथ पग धरै ।।६८।। पूजा करै जिनालय जाय । पूजै सदा गुरूके पाय । सामायिक साधै अघनास | करै परब प्रोषध उपवास ||६९।। चारप्रकार दान नित देय । औगुन त्यागै गुन गह लेय । सप्त सील पालै बड़भाग | मनवचकाय धर्मसौं राग ||७०।।
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