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पुनि अजोध सेनापति सूर । जो दिगविजय करै बल भूर । बुधसागर प्रोहित परवीर । बुधिनिधान विद्यागुनलीन ॥ ४७ ॥
थपित भद्रमुख नाम महंत । सिल्प- कला - कोविद गुनवंत । कामवृद्ध गृहपति विख्यात । सब गृहकाज करै दिनरात ||४८||
तीसरा अधिकार / ३७
ब्याल विजयगिरि अति अभिराम । तुरग तेज पवनंजय नाम | वनिता नाम सुभद्रा कही । चूरै वज्ज पानिसौं सही ||४९ ॥
महादेहबल धारै सोय । जा पटतर तिय अवर न कोय । मुख्यरतन यह चौदह जान । और रतनकौ कौन प्रमान ॥ ५० ॥
दोहा |
राजअंग चौदह रतन, विविध भांति सुखकार । जिनकी सुर सेवा करें, पुन्यतरोवर- डार ॥५१॥
चक्र छत्र असि दंड मनि, चर्म काकिनी नाम | सात रतन निर्जीव यह, चक्रवर्तिके धाम ॥५२॥
सेनापति गृहपति थपित, प्रोहित नाग तुरंग । वनिता मिलि सातौं रतन, ये सजीव सरवंग ||५३||
चक्र छत्र असि दंड ये, उपजैं आयुधथान । चर्म काकिनी मनिरतन, श्रीगृह उतपति जान ||५४||
गज तुरंग तिय तीन ये, रूपाचलतें होत । चार रतन बाकी विमल, निजपुर लहैं उदोत ॥५५॥ चौपाई | मुख्य संपदाको विरतंत । आगें और सुनौ मतिवंत । सिंहबाहनी सेज मनोग । सिंहारूढ चक्कवै जोग ||५६||
आसन तुंग अनुत्तर नाम । मानिक-जाल-जटित अभिराम । अनुपम नामा चमर अनूप | गंगा-तरल तरंग - सरूप ॥५७॥ विद्युतदुति मनिकुंडल जोट । छिपै और दुति जाकी ओट । कवच अभेद अभेद महान । जामै भिदै न बैरीबान ॥ ५८ ॥
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