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________________ गिरि ऊपर संबाहन जान । चौदह सहस मनोहर थान । अट्ठाईस हजार असेस । दुर्ग जहां रिपुकौ न प्रवेस ||२३|| तीसरा अधिकार / ३५ उपसमुद्रके मध्य महान । अंतरदीप छपन परिमान । रतनाकर छब्बीस हजार । बहु विध सार वस्तुभंडार ||२४|| I रतनकुच्छ सुंदर सातसै । रतनधरा थानक जहँ लसै । इन पुरसौं वस राजैं खरे । जैनधाम धरनी जनभरे ||२५|| वर गयंद चौरासी लाख । इतने ही रथ आगम-साख । तेज तुरंग अठारह कोर । जे बढ़ चलें पवनतैं जोर ||२६|| पुनि चौरासी कोटि प्रमान । पायक संघ बड़े बलवान । सहस छानवै वनिता गेह । तिनकौ अब विवरन सुन लेह ||२७| आरज-खंड बसैं नरईस । तिनकी कन्या सहस बतीस । इतनी ही अतिरूप रसाल । विद्याधर- पुत्री गुनमाल ||२८|| पुनि मलेच्छ भूपनकी जान । राजकुमारी तावतमान । नाटकिगन बत्तीस हजार । चक्री नृपकौं सुखदातार ।।२९ ॥ आदि सरीर आदि संठान । पूर्वकथित तन लच्छन जान । बहुविध विजनसहित मनोग । हेमवरन तन सहज निरोग ||३०|| छहों खंड भूपति बलरास । तिनसौं अधिक देहबल जास । सहस बतीस चरन-तल रमैं । मुकटबंध राजा नित नमैं ||३१|| भूप मलेच्छ छोरि अभिमान । सहस अठारह मानैं आन । पुनि गनबद्ध बखानैं देव । सोलह सहस करें नृप सेव ||३२|| कोटि थाल कंचन निर्मान लाखकोटि हलसहित किसान | नाना बरन गऊकुल भरे । तीनकोटि व्रज आगम धरे ||३३|| दोहा । अब नवनिधिके नाम गुन, सुनौ जथारथ रूप । जैनी बिन जानै नहीं, जिनको सहज सरूप ||३४|| - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002686
Book TitleParshvapurana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi, Nathuram Premi
PublisherSanmati Trust Mumbai
Publication Year2001
Total Pages175
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size6 MB
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