________________
३०/पार्श्वपुराण
दोहा । वदन चंद्र उपमा धरै, विकसित वारिज नैन । अंग अंग भूषन लसैं, सब बानक सुखदैन ||५७।। सुंदर तन सुंदर वचन, सुंदर स्वर्गनिवास ।। सुंदर वनितामंडली, सुंदर सुरगन दास ||५८।। अनिमा महिमा आदि दे, आठ रिद्धि फल पाय ।। सुर सुछंद क्रीड़ा करै, जो मन बरतै आय ||५९।। सुनत गीत-संगीत-धुनि, निरखत निरत रसाल || सुखसागरमैं मगन सुर, जात न जानै काल ||६०|| लोकोत्तम सब संपदा, अनुपम इंद्रीभोग ।। सुफल फल्यौ तपकल्पतरु, मिल्यौ सकल सुखजोग ||६१।। जैवंतो बरतो सदा, जैनधर्म जगमाहिं ।। जाके सेवत दुखसमुद, पसुपंछी तिर जाहिं ।।६२।।
इसही जंबूदीप, पूर्व विदेह मझारै ।। पुहकलावती देस, विकसत नैन निहारै ।।६३।। तहां विजयारध नाम, सोहै सैल रवानो ।। उज्जल वरन विसाल, रूपमई गिरिरानो ॥६४।। जोजन परम पचास, भूमिविसै चौड़ाई ।। तुंग पचीस प्रमान, सोभा कही न जाई ||६५।। चौथाई भूमांझ, नौ सिर कूट विराजै ॥ सिद्धसिखर जिनधाम, मनिप्रतिमा तहां छाजै ||६६।। उत्तर दच्छिन ओर, श्रेणी दोय जहां हैं | दोय गुफा गिरि हेठ, अति अंधियार तहां हैं ॥६७।। तापर स्वर्ग समान, लोकोत्तम पुर सोहै || वापी-कूप-तलाव , -मंडित सुर मनमोहै ||६८।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org