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२८/ पार्श्वपुराण
दोष अठारह-वरजित देव । दुविध-संग त्यागी गुरु एव ।। हिंसा वरजित धरम अनूप । यह सरधा समकितको रूप ||३५॥
दोहा ।
संकादिक दूषन बिना, आठौं अंग समेत || मोख-बिरछ-अंकूर यह, उपजै भवि-उर-खेत ||३६||
चौपाई |
अंगहीन दरसन जगमाहिं । भवदुख- -मेटन समरथ नाहिं || अच्छरऊन मंत्र जो होय । विषबाधा मेटै नहिं सोय ||३७|
तातैं यह निरनय उरआन । यह हिरदैं सम्यक सरधान || पंच उदंबर तीन मकार । इनकौं तजि बारह व्रत धार ||३८|| इहि विध गुरु दीनों उपदेस । वारण हरषित भयौ विसेस | सुगुरुवचन सब हिरदैं धरै । सम्यकपूरब व्रत आदरे ||३९||
बार बार भुविसौं सिर लाय । मुनिवर चरन नमै गजराय ॥ चले साधु तिहिं हित उपजाय । तब हाथी आयौ पहुँचाय ||४०||
करि उपगार मुनीस तहँ, बन निवसै गजपति व्रती,
दोहा । कीनौं सुविधि विहार ॥ सुगुरु सीख उर धार ||४१||
चालछंद ।
अब हस्ती संजम साधै । त्रसजीव न भूलि विराधै ॥ समभाव छिमा उर आनै । अरि मित्र बराबर जाने ||४२||
काया कसि इंद्री दंडै । साहस धरि प्रोषध मंडै || सूखे तृन पल्लव भच्छै । परमर्दित मारग गच्छे ||४३||
हाथीगन डोह्यौ पानी । सो पीवै गजपति ग्यानी || देखे बिन पांव न राखै । तन पानी पंक न नाखै ॥४४॥
निजसील कभी नहिं खोवै । हथिनीदिस भूलि न जोवै ॥ उपसर्ग सहै अति भारी । दुरध्यान तजै दुखकारी ॥४५॥
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