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दूसरा अधिकार/२७
गजके धकै पस्यो जो कोय । सो प्रानी पहुँच्यौ परलोय || मारे तुरग तिसाये गैल | मारे मारगहारे बैल ।।२३।। मारे भूखे करहा खरे | मारे जन भाजे भय भरे ।। इहि-विध हाथी करत सँघार | मुनि सनमुख आयौ किलकार ||२४|| अति विकराल रोषविष भरौ | मुनि मारनको उद्यम करौ ।। साधु सुदर्सन मेरु समान । सिरीवच्छ लच्छन उर थान ||२५|| सो सुचिन्ह गज देख्यौ जाम | जाती-सुमरन उपज्यौ ताम || ततखिन सांत भयौ गजईस । मुनिके चरन धस्यौ निज सीस ||२६।। तब मुनि चवै मधुर धुनि महा । रे गयंद यह कीनौं कहा ।। हिंसा करम परम अघहेत | हिंसा दुरगतिके दुख देत ॥२७॥ हिंसासौं भमिये संसार । हिंसा निजपरकौं दुखकार || तैं ये जीव विधुंसे आय | पातकतै न डस्यौ गजराय ||२८|| देखि देखि अघके फल कौन । लई विप्रतैं कुंजर-जौन ।। तू मंत्री मरुभूति सुजान । मैं अरविंद क्यों न पहिचान ||२९|| धर्मविमुख आरतके दोष । पसु-परजाय लई दुखकोष ।। अब गजपति ये भाव निवारि । धर्मभावना हिरदै धारि ||३०|| सम्यकदरसन-पूरब जान | पालि अनुव्रत जब लौं प्रान || सुन करिंद उर कोमल थयौ । किये पाप निज निंदत भयौ ||३१||
दोहा । फिर गुरु-पाँयन सिर धस्यौ, धर्म गहन उर हेत ।। तब सत्यारथ धर्मविधि, कही साधु समचेत ॥३२।।
चौपाई। सुन हस्ती सासनअनुकूल | सकल धरमकौ दर्सन मूल ।। सब गुनरत्नकोष यह जान । मुक्ति -धौरहर-धुर-सोपान ||३३।। तातें यह सबहीको सार | या बिन सब आचरन असार ।। जो सरदहै औरकी और । सो मिथ्यात-भावकी दौर ||३४||
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