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२६/पार्श्वपुराण
चौपाई। एक दिवस अरविंद नरेस | ज्यों विमानमैं स्वर्ग सुरेस ।। यों निज महलन निवसै भूप । देख्यौ बादल एक अनूप ||११|| तुंग सिखर अति उज्जल महा । मानों मंदिर ही बनि रहा ।। नरवै निरखि चिंतवै ताम । ऐसो ही करिये जिनधाम ।।१२।। लिखनहेत कागद कर लयौ । इतने सो सरूप मिटि गयो ।। तब भूपति उर करै विचार | जगतरीति सब अथिर असार ।।१३।। तन-धन-राज संपदा सबै । यों ही विनसि जायगी अबै ।। मोहमत्त प्रानी हठ गहै । अथिर वस्तुकौं थिर सरदहै ||१४|| जो पररूप पदारथ जाति । ते अपने मानै दिनराति ।। भोगभाव सब दुखके हेत । तिनहीकौं जानै सुखखेत ।।१५।। ज्यों माचन-कोदों परभाव । जाय जथारथ दिष्टि स्वभाव || समझै पुरुष औरकी और । त्यों ही जगजीवनकी दौर ।।१६।। पुत्र कलत्र मित्रजन जेह । स्वास्थ लगे सगे सब एह ।। सुपन-सरूप सकल संभोग । निज हित हेत विलंब न जोग ।।१७।। यों भूपति वैराग विचारि । डारी पोट परिग्रह भारि ॥ राजसमाज पुत्रकौं दियौ । सुगुरुसाखि नृप चारित लियौ ||१८|| धरी दिगंबरमुद्रा सार | करै उचित आहार विहार || बारहविध दुद्धर तपलीन । छहों काय पीहर परवीन ।।१९।। एकसमय अरविंद मुनीस । सारथबाहीके संग ईस || सिखर सुमेरु बंदनाहेत । चले ईरज्यापथ पग देत ॥२०॥ गये सल्लकी बनमैं लंघ । तहां जाय उतस्यौ सब संघ ।। निज सिज्झाय-समय मन लाय । प्रतिमा-जोग दियौ मुनिराय ||२१|| तावत वज्रघोष गजराज | आयौ कोपि काल-सम गाज || सकल संग मैं खलबल परी | भाजे लोग कीकि धुनि करी ||२२||
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