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________________ पहला अधिकार/२३ चौपाई। गयो विप्र एकाकी तहां । कमठ कठोर करै तप जहां ॥ विनयवंत हो विनयो तास । महा सरलवायक मुख भास ||१०८।। भो बंधव तो उर गंभीर । यह अपराध छिमा कर बीर || मैं तो राय बहुत बीनयो । मानी नाहीं तुमैं दुख दयो ||१०९।। होनहारसौं कहा वसाय | तुम विन मोहि कछू न सुहाय ।। यों कह पायन लाग्यौ जाम | कोप्यौ अधिक कमठ दुठ ताम ||११०।। दोहा । दुर्जन और सलेखमा, ये समान जगमाहिं ।।। ज्यों ज्यों मधुरो दीजिये, त्यों त्यों कोप कराहिं ||१११।। सिला सहोदर सीसपै, डारी वज्र समान || पीर न आई पिसुनकौं, धिक दुर्जनकी बान ||११२।। दुर्जनको विस्वास जे, करि हैं नर अविचार || ते मंत्री मरुभूति सम, दुख पावै निरधार ||११३।। दुर्जन जनकी प्रीतसौं, कहो कैसे सुख होय || .. विषधर पोषि पियूषकी , प्रापति सुनी न लोय ||११४।। मंत्रीतनौं रुधिरकी, उछली छींट कराल | दुर्जन हित तरुतैं किधौं, निकसी कोंपल लाल ||११५।। इहिविधि पापी कमठने, हत्या करी महान || तब तपसी मिलि नीच नर, काढ़ दियौ दुट जान ||११६।। चौपाई। फेरि दुष्ट भीलननै मिल्यो । भयो चोर घर मूसन हिल्यौ ।। पाप करत कर आयो जबै । बांधि बुरी विधि मास्यौ तबै ||११७।। दोहा । जैसी करनी आचरै, तैसो ही फल होय ।। इन्द्रायनकी बेलिकै, आंब न लागै कोय ||११८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002686
Book TitleParshvapurana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi, Nathuram Premi
PublisherSanmati Trust Mumbai
Publication Year2001
Total Pages175
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size6 MB
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