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. २२/पार्श्वपुराण
रहै तहां तपसी-समुदाय । ग्यानविना सब सोखें काय || केई रहे अधोमुख झूल । धुंआं पान करै अघमूल ||९६।। केई ऊरधमुखी अघोर | देखें सबै गगनकी ओर || केई निवसैं ऊरध बाहिं । दुविध दयासौं परचै नाहिं ।।९७|| केई पंच अगनि झल सहैं । केई सदा मौनमुख रहैं ।। केई बैठे भसम चढ़ाय । केई मृगछाला तन लाय ||९८॥ नख बढ़ाय केई दुख भरें । केई जटा-भार सिर धरै ।। यो अग्यान तपलीन मलीन | करै खेद परमारथहीन ||९९।। तिनमैं एक तापसीनाथ । प्रनम्यौ ताहि धरे सिर हाथ ।। तिन असीस दे आदर कियौ । दिच्छादान कमठ तहँ लियौ ।।१००।। करन लग्यौ तब कायकलेस । उर वैराग विवेक न लेस ।। टाढ़ो भयौ सिला कर लिये । किधौं फनी फन ऊँचो किये ।।१०१।। मंत्री बंधवकी सुधि पाय । राजासौ विनयो इमि आय || भूताचलपर्वतकी ओर । भ्राता कमठ करै तप घोर ||१०२।। जो नर नायक आग्या होय । देखू जाय सहोदर सोय ॥ पूछै नृपति कौन तप करै । भो प्रभु तापसके व्रत धरै ।।१०३।। एक बार मिलि आऊं ताहि । राय कहै मंत्री मत जाहि || खलसौं मिले कहा सुख होय । विषधर भेटे लाभ न कोय ||१०४।। बरजौ रह्यौ न बारंबार | महा सरलचित विप्रकुमार ।। भ्रातमोहबस उद्यम कियौ । कोमल होत सुजनको हियौ ।।१०५||
दोहा । दुर्जनदूखित संतकौ , सरल सुभाव न जाय || दर्पणकी छवि छारसौं, अधिकहि उज्जल थाय ||१०६।। सज्जन टरै न टेवसौं, जो दुर्जन दुख देय ।। चंदन कटत कुठारमुख | अवसि सुवास करेय ||१०७।।
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