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२०/पार्श्वपुराण
कमठ सखा कलहंस विसेख । पूछत भयौ दुखी तिह देख ।। कौन व्याधि उपजी तुम अंग । अतिव्याकुल दीखत सरवंग ||७३।। तब तिन लाज छोरि सब सही । मनकी बात मित्रसौं कही ।। सुनि कलहंस कथा विपरीति । सिच्छावचन कहे करि प्रीति ||७४।। अति अजोग कारज इह बीर । सो तुम चिंत्यौ साहस-धीर ।। परनारीसम पाप न आन । परभवदुख इह भव जस-हान ||७५|| इस ही बंछासौं अघ भरे । रावण आदि नरकमै परे ।। जगमैं जेट पितासमतूल । बात कहत लाजै नहिं भूल ७६।। तातें यह हठ भूल न करौ । सुहित सीख मेरी मन धरौ ।। लोकनिंद कारज यह जान । धर्मनिंद निहचै उर आन ||७७।।
दोहा । यों कलहंस अनेक विध, दई सीख सुखदैन ।। ते सब कमठ-कुसील-प्रति, भये विफल हितवैन ||७८।। आयुहीन नर-कौं जथा, औषधि लगै न लेस ।। त्यों ही रागी-पुरुष प्रति, वृथा धरम-उपदेस ।।७९।। बोल्यौ तब कामी कमठ, सुनो मित्र निरधार || जो नहिं मिलै विसुंदरी, तो मुझ मरन विचार ||८०|| देख कमठकी अधिक हठ, कुमति करी कलहंस ।। जाय कहे ता नारिसौं, झूठ वचन अपसंस ||८१।।
अडिल्ल छंद । सुन विसुंदरी आज कमठ बनमैं दुखी । तू ताकी सुध लेहु होय जिहि विधि सुखी ।। सुनते ही सतभाव गई बनमैं तहां । निवसै कर परपंच कमठ कपटी जहां ||८२।।
दोहा । छलबल कर भीतर लई, वनिता गई अजान || राग वचन भाखे विविध, दुराचारकी खान ।।८३।।
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