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________________ १७४/पार्श्वपुराण छठा अधिकार इन्द्रों के आसन कम्पायमान हुए / देवों के यहां घंटा अपने आप बजने लगे / किसी के यहाँ शंख बजने लगे / नगाड़े बजने लगे / तब अवधिज्ञान से जाना कि तीर्थंकर प्रभु का जन्म हो गया है / प्रथम इन्द्र इन्द्राणी सहित तथा अन्य देव समूह के साथ वाराणसी नगरी में ऐरावत हाथी पर आरूढ़ होकर आये / सबसे पहले नगर की तीन प्रदिक्षणा दी | पश्चात् इन्द्राणी को प्रसूतिगृह भेजकर बालक को उठवाया / भगवान का बड़ा सुन्दर रूप था / वे नीलमणि के समान सुन्दर लग रहे थे / इन्द्र ने एक हजार नेत्रों से उन्हें निहारा और ऐरावत हाथी पर बिराजमान करके सुमेरु पर्वत पर, पांडुकवन में निर्मित पांडुकशिला पर, रत्नों के सिंहासन पर बिराजमान कर, क्षीरसागर के जल से एक हजार आठ कलशों द्वारा उनका अभिषेक किया / इन्द्राणी ने उस बालक का शृंगार किया / स्वर्गीय वस्त्र-आभूषण पहनाए और विनम्रता से उनकी स्तुति की / पश्चात् उनका नाम पार्श्वनाथ रखा / वहां से वापिस आकर पार्श्वकुमार को उनके माता पिता को सौंप इन्द्र अपने स्थान पर चला गया / सातवाँ अधिकार ____ पार्श्वकुमार दोज के चन्द्रमा की तरह दिनोंदिन बढ़ने लगे / जन्म से ही इन्हें तीन ज्ञान थे / मति, श्रुत और अवधिज्ञान / जब कुमार आठ वर्ष के हुए तो उन्होनें अणुव्रत धारण कर लिए / धीरे धीरे कुमार यौवन अवस्था को प्राप्त हुए / तब पिता ने उनके ब्याह का प्रस्ताव कुमार के समक्ष रखा / पार्श्वकुमार ने मना कर दिया / पिताने समझाने की कोशिश की और कहा बेटा बड़े बड़े पूर्व के महापुरुषों ने विवाह किया / वंश चलाने के लिए संतान उत्पन्न की / जैसे ऋषभ देव आदि उनके भरत, बाहुबलि आदि सौ पुत्र थे | पार्श्वकुमार ने कहा पिताजी जरा इनकी आयु भी तो देखो एक कोटी वर्ष पूर्व आयु थी | मेरी आयु कुल सौ वर्ष की / जिसमें सौलह वर्ष तो बचपन में ही निकल गये / अब शेष आयु बची ही कितनी सी / अतः मैं ब्याह के झंझट में नहीं पड़ना चाहता / पिता चुप रह गये / एक दिन पार्श्वकुमार अपने साथियों के साथ हाथी पर बैठ कर वन विहार को निकले / रास्ते में उन्हें एक तापसियों का आश्रम दिखा / वे उसे देखने हाथी से उतर कर आश्रम पहुँचे / वहां क्या देखते हैं कि एक तपस्वी पंच अग्नि जलाकर तप कर रहा है / उन्होंने अवधिज्ञान से जानकर कहा : रे भाई क्यों जीवों की विराधना कर रहे हो? तुम क्यों ऐसा अज्ञान तप कर रहे हो, इस लकड़ी में अन्दर एक नाग-नागनी का जोड़ा जल रहा है / तापस क्रोध में लाल नेत्र करके बोला ; हमारे तप को अज्ञान तप कहते हो / तुम्हीं अकेले ज्ञानी हो? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002686
Book TitleParshvapurana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi, Nathuram Premi
PublisherSanmati Trust Mumbai
Publication Year2001
Total Pages175
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size6 MB
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