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१६/पार्श्वपुराण
महिमा कछु बरनी नहिं जाय | इंद्रादिक से सब पाय || समोसरनसंपतिकी कथा । मौपै कही जाय किमि तथा ॥३१।। माली वचन सुनै सुखदाय । हरष्यौ राजा अंग न माय || दी. भूषन वसन उतार । बनमाली लीनैं सिरधार ||३२।। सात पैंड़ गिरिसम्मुख जाय । कियौ परोच्छविनय नरराय ।। आनंदभेरि नगरमैं दई । सबहीकौं दरसनरुचि भई ॥३३।। चल्यौ संग पुरजन समुदाय । बंदे वर्द्धमान जिनराय ।। लोकोत्तर लछमी अवलोक | गये सकल भूपतिके सोक ||३४|| थुति आरंभ करी बहुभाय । बार बार भुवि सीस नबाय ।। गौतम गुरु पूजे कर जोरि । नरको बेठ्यौ मद छोरि ॥३५।। कियौ प्रस्न रोणिक बड़ भूप । प्रमु पारस निजकथा अनूप ।। जाके सुनत पाप छय होय | कहिये देव कृपाकरि सोय ॥३६।। तब गनधर बोले हितकाज । जोग प्रस्न कीनों नरराज ।। सुन पुनीत पारसजिनकथा | सफल होय मानुषभव जथा ||३७।। :
दोहा। इहि विधि जो मगधेस प्रति, कह्यौ चरित गनराज || ताही क्रम आये कहत आचारज परकाज ॥३८॥ तिनहीके अनुसार अब, कहूँ किमपि विस्तार ।। जैनकथा कलपति नहीं, यह जानौ निरधार ||३९।। जैनवचनवारिधि अगम, पानी अर्थ अनूप || मतिभाजन भर भर लिये, यह जिनआगमरूप ।।४०।।
इति पीठिका।
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