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१४/पार्श्वपुराण
दोहा । सकलपूज्य-पद पूजकै, अलपबुद्धिअनुसार ॥ भाषा पार्सपुरानकी, करौं स्वपरहितकार ||१४||
चौपाई। जिनगुनकथन अगमविस्तार | बुधिबल कौन लहे कवि पार || जिनसेनादिक सूरि महँत । वरनन करि पायो नहिं अंत ||१५|| तो अब अलपमती जन और । कौन गिनतिमैं तिनकी दौर ।। जौ बहुभार गयंद न बहै । सो क्यों दीन ससक निरबहै ।।१६।।
दोहा।
कह जानैं ते यों कहैं, हम कछु वरन्यौ नाहिं ।। जे कह जानैं ही नहीं, ते अब कहा कहाहिं ।।१७।। नभ बिलस्त नापै नहीं, चुलू न सागर-तोय ।। श्रीजिनगुनसंख्या सुजस, त्यों कवि करै न कोय ||१८॥
चौपाई। पै यह उत्तम नर अवतार | जिनचरचा बिन अफल असार || सुनि पुरान जो घुमैं न सीस । सो थोथे नारेल सरीस ||१९।। जिनचरित्र जे सुनै न कान । देहगेहके छिद्र समान ।। जामुख जैनकथा नहिं होय | जीम मुजंगनिको बिल सोय ॥२०॥ या प्रकार यह उद्यम जोग | कहत पुरानन पंडित लोग || जिनगुनगान सुधारसन्याय । सेवत अलप जनम-जुर जाय ॥२१॥
घनाक्षरी। जौ लौं कवि काव्यहेत आगमके अच्छरको, अस्थ विचारै तौलौं सिद्धि सुभध्यानकी । और वह पाठ जब भूपर प्रगट होय, पढ़ें सुनें जीव तिन्हैं प्रापति है ग्यानकी ॥ ऐसे निज-परको विचार हित हेतु हम, उद्यम कियौ है नहिं बान अभिमानकी ।
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