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पीठिका/१३
साकिनि डाकिनि अगनि, चोर नहिं भय उपजावैं । रोग सोग सब जाहिं, विपत नेरे नहिं आवै ॥ श्रीपार्सदेवके पदकमल, हिय धरत निज एकमन । छूटें अनादि बंधन बँधे, कौन कथा विनसैं विघन ।।५।। चहुंगति भ्रमत अनादि, वादि बहुकाल गमायौ । रही सदा सुख-आस,-प्यास, जल कहूं न पायौ ।। सुखकरता जिनराज, आज लौं हिमैं न आये । अब मुझ माथे भाग, चरन-चिंतामनि पाये ।। राखौं संभाल उर कोषमैं, नहिं बिसरौं पल रंक-धन । परमादचोर टालन निमित, करौं पार्सजिनगुनकथन ।।६।।
चौपाई (१५ मात्रा)। बंदौं तीर्थंकर चौबीस । बंदौं सिद्ध बसें जगसीस ।। बंदौं आचारज उबझाय | बंदौं परम साधुके पाय ||७|| ये ही पद पांचौं परमेठ । ये ही सांच और सब हेट ।। ये ही मंगल पूज्य अतीव । ये ही उत्तम सरन सदीव ||८|| बंदौं जिनवानी मन सोध । आदि अंत जो विगत-विरोध || सकलवस्तुदरसावनहार | भ्रमविषहरन ओषधी सार ||९||
दोहा। बरतो जग जयवंत नित, जिनप्रवचन अमलान ।। लोक-महलमैं जगमगै, मानिक-दीप समान ||१०|| हरो भरम दारिद्र दुख, भरो हमारी आस || करो सारदा लच्छमी, मुझ उरअंबुज बास ।।११।।
___ चौपाई। बंदौं वृषभसेन गनराज | गुरु गौतम भवजलधिजहाज || कुंदकुंद-मुनि-प्रमुख सुपंथ । जे सब आचारज निरग्रंथ ।।१२।।
जैनतत्त्वके जाननहार । भये जथारथ कथक उदार ।। तिनके चरनकमल कर जोरि । करौं प्रनाम मान-मद छोरि ॥१३॥
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