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१३८/पार्श्वपुराण
बांधी गतिके परसन काज | चौथो भेद कह्यौ जिनराज || जो मुनिकै कछु कारन पाय । उपजै क्रोध न थांभ्यौ जाय ।।६३।। तैजस तनको औसर यही । वाम कंधसौं प्रगटै सही ।। ज्वालामई काहलाकार | अरु सिंदूरपुंज उनहार ||६४।। बारह जोजन दीरघ सोय । नौ जोजन विस्तीरन होय || दंडकपुरवत प्रलय करेय । साधु-समेत भस्म कर देय ||६५।। असुभकषाय यही विख्यात । अब सुनि सुभ तैजसकी बात || दुर्भिच्छादिक दुख अविलोय । दयाभाव मुनिवरकै होय ॥६६।। सुभआकृतिसौं निकसै ताम । दच्छिन कांधेसौं अभिराम ।। पूरवकथित देह-विस्तार | रोगसोग सब दोष निवार ||६७|| फिर निज थान करै पैसार । पंचम समुदघात यह धार || करत साधु पदअर्थ-विचार | मन संसय उपजै तिहिं बार ||६८।। तहां तपोधन चिंता करै । कैसे यह विकलप निरखरै ।। भरतखेत आदिक भूमाहिं । अब ह्यां निकट केवली नाहिं ।६९।। तातें करिये कौन उपाय | बिन भगवान भरम नहिं जाय ।। तब मुनि-मस्तकसौं गुनगेह । प्रगट होय आहारक देह ||७०|| एक हाथ तिस परमित कही । श्रीजिन सासनसौं सरदही ।। फटिक वरन मनहरन अनूप । तहां जाय जहं केवलभूप ७१।। दरसन करि संदेह मिटाय । फेरि आनि निजथान समाय || अष्टम समुदघात यह मान । मुनिके होहि छठें गुनथान ||७२।। जब सजोगि जिनकै परदेस । बाहर निकसैं अलख अभेस ।। दंड-कपाटादिक-विधि ठान | क्रमसौं होहिं लोक परवान ||७३|| सप्तम समुदघात यह भाय । सरधा करो भविक मन लाय ।। मरनांतक आहारक जेह । एक दिसागत जानौ येह ||७४||
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