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नौवाँ अधिकार/१३७
सोरठा । प्रानी सुख दुख आप, भुगतै पुद्गल कर्मफल ।। यह व्यवहारी छाप, निहचै निजसुख-भोगता ||५३।।
दोहा। देहमात्र व्यवहार कर, कह्यौ ब्रह्म भगवान || दरवित नयकी दिष्टिसौं, लोकप्रदेस समान ||५४||
अडिल्ल । लघु गुरु देह प्रमान, जीव यह जानिये । सो विथार-संकोच-सकतिसौं मानिये || ज्यों भाजन परवान, दीपदुति विस्तरै । समुदघात विन राम, यही उपमा धरै ||५५।।
चौपाई। तैजस कारमानजुत भेस । बाहर निकसैं जीवप्रदेस ॥ छांडै नहीं मूल तन ठाम । समुदघात विधि याकौ नाम ||५६।। सातभेद सब ताके कहे । गोमटसार देखि सरदहे ।। प्रथम वेदना नाम बखान | दुतिय कषाय नाम उर आन ||५७।। तन-विकुर्वना तीजो येह । चौथो मारनांत सुनि लेह ।। पंचम तैजस संग्या जान । छट्ठम आहारक अभिधान ||५८|| केवल समुदघात सातमा । ऐसी सकति धरै आतमा ।। दुसह वेदनाके वस जहां । जीवप्रदेस कढ़त हैं तहां ।।५९।। किसी जीवकै हो परवान | पहला समुदघात यह जान || जब काहू रिपु करन विधंस | बाहर जाहिं जीवके अंस ||६०|| अति कषायसौं हो है तेह । दूजो समुदघात है येह ।। नाना जात विक्रियाहेत । निकसैं ब्रह्म प्रदेस सचेत ।।६१।। देव नारकीके यह होय । तीजो समुदघात है सोय ।। किसी जीवकै मरते समै । हंस अंस तन बाहर गमै ।।६२।।
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