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नौवाँ अधिकार/१३३
किस आचरन बड़ी थिति धरै । क्यों करि अलप आयु धरि मरै ।। भोगहीन अरु भोगसमेत । सुखी दुखी दीखै किस हेत ||११|| किस कारन मूरख मतिहीन । क्यों उपजै पंडित परवीन || किस करनी होय सरोग । किस अधर्मरौं पुत्रवियोग ।।१२।। विकल सरीर पाय दुख सहै । नीच ऊंचकुल कैसैं लहै ।। किन भावनि भवथिति विस्तरै । भवथिति भेद कहाकरि करै ।।१३।। क्योंकर होय सुरगमैं इंद्र | कैसैं पद पावै अहमिंद्र ।। चक्रीपद किस पुन्य-उदोत । किमि बांधै तीर्थंकर-गोत ||१४|| इत्यादिक यह प्रस्न समाज | इनको उत्तर कह जिनराज || तुम सब संसयहरन जिनेस | जैसे भव-तम-दलन दिनेस ||१५||
दोहा । तब श्रीमुखवानी विमल, बिनअच्छर गंभीर || महामेघकी गरज सम, खिरी हरन जगपीर ।।१६।। तालु होठ सपरस बिना, मुखविकार बिन सोय || सब भाषामय मधुरतर, श्रीजिनकी धुनि होय ।।१७।। जथा मेघजल परिनमैं, निंबादिक-रस-रूप ।। तथा सर्वभाषामई, श्रीजिनवचन अनूप ||१८||
चौपाई। छहौं दरब पंचासतिकाय । सात तत्त नौ पद समुदाय ।। जानन जोग जगतमैं येह । जिनसौं जाहिं सकल संदेह ।।१९।। सब बिध उत्तम मोखनिवास । आवागमन मिटै जिहिं वास ।। तातें जे सिवकारन भाव । तेई गहन जोग मन लाव ||२०|| यह जगवास महादुखरूप । तातै भ्रमत दुखी चिद्रूप || जिन भावन उपजै संसार | ते सब त्याग-जोग निरधार ||२१|| नरकादिक जग-दुख जावंत । पाप कर्म-बसतैं बहुभंत ।। सुरगादिक सुखसंपति जेह । पुन्य तरोवरको फल तेह ।।२२।।
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