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१३४/पार्श्वपुराण
दोहा । इहि बिध प्रस्न-समाजको, यह उत्तर सामान ।। अब विसेस इनको लिखौं, जथासकति कछु जान ||२३|| जीव अजीव विसेस बिन, मूल दरव ये दोय ।। इनहीको फैलाव सब, तीनकाल तिहं लोय ||२४|| चेतन जीव अजीव जड़, यह सामान्य सरूप ।। अनेकांत जिनमत विषै, कह्यौ जथारथरूप ||२५|| दरव अनेक नयातमक, एक एक नय साधि ।। भयौ विबिध मतभेद यौं, जगमैं बढ़ी उपाधि ||२६|| जन्मअंध गजरूप ज्यों, नहिं जानै सरवंग ।। त्यों जगमैं एकांत मत, गहै एक ही अंग ॥२७।। ता विरोधके हरनकौं, स्यादवाद जिनवैन ।। सब संसय-मेटन विमल, सत्यारथ सुखदैन ।।२८।। सात भंगसौं साधिये, दरवजात जामाहिं ।। सधै वस्तु निरविघन तब, सब दूषन मिट जाहिं ||२९||
- घनाक्षरी। अपने चतुष्टैकी अपेच्छा दर्व 'अस्ति' रूप, परकी अपेच्छा वही 'नासति' बखानियै ।। एकही समै सो 'अस्ति नासति' सुभाव धरै, ज्यों है त्यों न कहा जाय 'अवक्तव्य' मानियै ।। अस्ति कहै नासति अभाव 'अस्ति अवक्तव्य', त्योंही नास्ति कहैं 'नास्ति अवक्तव्य' जानिये || एकै बार अस्ति नास्ति कह्यौ जाय कैसैं तातें, 'अस्ति नास्ति अवक्तव्य' ऐसै परवानियै ||३०||
दोहा । इहि बिध ये एकांतसौं, सात भंग भ्रमखेत ।। स्यादवाद पौरुष धरै, सब भ्रमनासन हेत ||३१||
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