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१२६/पार्श्वपुराण
तिनपै रतनथंभ छबि देहिं । प्रभाजालसौं तम हर लेहिं ।। तिनहीपै श्रीमंडप छयौ । फटिकमई नभमैं निरमयौ ।।१०९।।
____ सोरटा । या श्रीमंडपमाहिं, निराबाध तिहुं जग बसैं || भीर होय तहां नाहिं, त्रिभुवनपति अतिसय अतुल ||११०||
चौपाई। भीतन बीच गली जे रहीं । बारह सभा तहां जिन कहीं ।। बैठे मुनि अपछर अज्जिया | जोतिष-वान-असुर-सुर-तिया ||१११।। भावन विंतर जोतिषि देव । कल्पनिवासी नर-पसु एव ।। तिनमैं प्रथम पीठिका ठई । अनुपम बैडूरज-मनिमई ।।११२।। मोर-कंठवत आभा जास | सोलह पैंड साल चहुं पास || बारह सभा महा दिसि चार । तिनकौं यह पथ सोलह सार ||११३।। मंगलदरब जहां सब धरे । जच्छदेव सेवक तहां खरे ॥ धर्मचक्र तिनके सिर दिपै । जिनकौं देखि दिवाकर छिपै ।।११४।। तापर दुतिय पीठिका बनी । चामीकरमय राजत घनी ।। मेरुशृंगवत उन्नत एम । जगमगाय मंडल रवि जेम ||११५।। आठधुजा आठौं दिसि जहां । तिन सोभा बरनन बुधि कहां ।। तिनमैं आठ चिहन चित्राम | चक्र गयंद वृषभ अभिराम ||११६।। वारिज वसन केहरीरूप । गरुड़ माल आकार अनूप || मंद-पवन-वस हालैं जेह । किधौं पापरज झारत येह ||११७।। तापर तृतिय पीठिका और । तीन मेखला-मंडित ठौर ।। सर्व रतनमय झलकत खरी । किरन जास दस दिसि विस्तरी ।।११८।। गंधकुटी तहां बनी अनूप | पंचरतनमय जड़ित सरूप ।। जाके चार द्वार चहुंओर । झलकै मानिक होरा-होर ।।११९।।
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