________________
आठवाँ अधिकार/१२७
तीनपीट सिर सोहत खरी । किधौं त्रिजग छबि नीची करी || परम सुगंध न बरनी जाय । सुन्दर सिखर धुजा फहराय ||१२०॥ तहां हेम-सिंहासन सार । तेजसरूप तिमिर छयकार || नाना रतन प्रभामय लसैं । जगलछमी प्रति किरनन हसैं ||१२१।। वचनगम्य नहिं सोभा जहां । अंतरीच्छ प्रभु राजें तहां ।। त्रिभुवन पूजित पासजिनेस । ज्यों जगसिखर सिद्धपरमेस ।।१२२।।
दोहा । समवसरन रचना अतुल, ताकौ अति विस्तार || संपति श्रीभगवानकी, कहत लहत को पार ||१२३।।
सोरठा । जिन-बरनन-नभमाहिं, मुनि विहंग उद्यम करें । पै उड़ि पार न जाहिं, कौन कथा नर दीनकी ॥१२४।।
गीता। राजत उतंग असोक तरुवर, पवनप्रेरित थरहरै । प्रभु निकट पाय प्रमोद नाटक, करत मानौं मनहरै ।। तिस फूलगुच्छन भ्रमर गुंजत, यही तान सुहावनी ।
सो जयौ पासजिनेंद्र, पातकहरन जग-चूड़ामनी ॥१२५।। निज मरन देखि अनंग डरप्यौ, सरन ढूंढ़त जग फिस्यौ । कोऊ न राखै चोर प्रभुको, आय पुनि पायन गिस्यौ ।। यों हार निज हथियार डारे, पहुप-बरसा मिस भनी । सो जयौ पासजिनेंद्र, पातकहरन जग-चूड़ामनी ।।१२६।। प्रभु अंग नील उतंग नगरौं, वानि सुचि सीता ढली । सो भेदि भ्रम गजदंत पर्वत, ग्यानसागरमैं रली ।। नय सप्तभंग-तरंग-मंडित, पाप-ताप-विधंसनी ।। सो जयौ पासजिनेंद्र, पातकहरन जग-चूड़ामनी ||१२७॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org