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आठवाँ अधिकार/१२५
मानथंभ धुजथंभ अनूप | चैतबिरछ बेदी गढ़रूप ।। इत्यादिक ऊंचे इकसार | जिन-तनतें बारह गुन धार ||९७।। आगे रजतमयी निरमान । तुंग कोट अति धवल महान ।। किधौं सेत प्रभु-सुजस-प्रकास । फेरी देय फिस्यौ चहुंपास ॥९८।। पूरबवत दरवाजे चार । रतनमई अनुपमछबि-धार || नौनिधि मंगलदरब समाज । तोरनप्रमुख और सब साज ||९९।। प्रथम कोट बरनन-सम जान । ठाड़े भवन देव दरवान || यासौं लगी और अब गली । चारों तरफ एक सी चली ||१००।। कलपबिरछ-बन राजै तहां । दस बिध कलपतरोवर जहां ।। भूषन वसन लगे जिन डार | सोभा कहत न लहिये पार ||१०१।। मध्यभाग जिनबिंब समेत । सिद्धास्थ तरुवर छबि देत ।। चहुंदिसि बेदी चहुं दिसि द्वार | रचना और अनेक प्रकार ||१०२।। इस बेदीके बाहर भाग | आगे फटिक कोट लौं लाग ।। अति विचित्र महलनकी पांति ।। जिन सिर रतनकूट बहुभांति ।।१०३।। चंद्रकांति मनि-भासुर भीत । सुवरनमय तहां थंभ पुनीत || सुरनरनाग रमैं जिनमाहिं । किन्नरगन बहु केलि कराहिं ||१०४।। बीथी-मध्यदेस सुभरूप | पद्मराग-मनिमय नव तूप || धुजा छत्र घंटा छबि देहिं । जिनमुद्रासौं मन हर लेहिं ।।१०५।। आगें तृतिय कोट बन एम । फटिकमई निर्मल नभ जेम ।। अति उतंग सो बलयाकार | लालबरन मनिनिर्मित द्वार ||१०६।। और कथन पूरबवत जान । ठाड़े सुरगदेव दरवान ।। महा मनोहर लोचनहारि | अनुपम सोभा अचरजकारि ||१०७|| अब सुनि मध्य भूमिकी कथा | फटिककोट भीतर विधि जथा || गढ़सौं प्रथम पीठ लग लगी । फटिकमीत सोलह जगमगी ।।१०८।।
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