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१२४/पार्श्वपुराण
बाजै बीन बांसली ताल । महा मुरजधुनि होय रसाल ।। आगे बीथी अंतर धरे । दोनों दिसा धूपघट भरे ||८६।।
__ 'सोरठा । स्याम वरन यह जानि, धूप धुआं नभकौं चल्यौ ।। किधौं पुन्य-डर मानि, धुआं मिस पातग भज्यौ ।।८७।।
चौपाई। आगे चार बाग चहुं ओर । प्रथम असोक नाम चितचोर || सप्तपरन चंपक सहकार । ये इनकी संग्या अविधार ||८८|| सब रितुके फल-फूलन-भरे । बिरछ बेलसौं सोहत खरे ।। वापीमंडप महल मनोग । राजै जहां जथाबिध जोग ।।८९।। चैत-बिरछ चारौं बनमाहिं । मध्य भाग सुंदर छबि छाहिं ।। जिनमुद्रा-मंडित मन हरॆ । सुर नर नित पूजा विस्तरै ।।९०।। बाग ओट बेदी चहुंओर | चार द्वारमंडित छबि-जोर ।। अब इस बन-बेदीतैं सही । गढ़परजंत गली जे रही ।।९१।। तिनमैं धुजापांति फहराहिं । कंचनथंभ लगी लहराहिं ।। दसप्रकार आकार समेत । तिनके भेद सुनौ सुखहेत ||९२।। माला वसन मोर अरविंद । हंस गरुड़ हरि वृषभ गयंद || चक्रसहित दस चिहन मनोग । धुजा दुकूलनि सोहैं जोग ||९३ ये दस एक जातकी जान । एक एकसौ आठ प्रमान || दससै असी सबै मिल भई । एक दिसामैं सब बरनई ॥९४।। चारौं दिसिकी जोड़ सरीस । चार हजार तीनसै बीस || यह परमित जिनसासनमाहिं । अति विचित्र सोभा अधिकाहिं ।।९५। हालैं धुजा पवन-वस येह । जिनपूजन भवि आये जेह ।। पंथखेद तिनकौ मन आन । करत किधौं सतकार-विधान ।।९६।।
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