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आठवाँ अधिकार/१२३
आगे खाई सोभित खरी । औड़ी अधिक विमल जलभरी ।। रतन-तीर राजै चहुंओर | हंसकलाप करें जहं सोर ||७५।।
दोहा । बलयाकृति खाई बनी, निर्मल जल लहरेय । किधौं विमल गंगानदी, प्रभु परदछना देय |७६।।
चौपाई। आगे पुहपबेल-बन सार | महा सुगंध मधुप-सुखकार || सघन छह सब रितुके फूल । फूले जहां सकल सुखमूल ||७७।। याकै कछु अंतर दुति धरै । कंचन कोट प्रथम मनहरै ।। बलयाकृति अति उन्नत जेह । मानौं मानुषोत्र गिरि येह ।।७८।। चहुंदिसि सोहैं चार दुवार । रूपमई तिखने मनहार ॥ रतनकूट ऊपर जगमगै । लाल बरन अतिसुंदर लगै ७९।। किधौं अरुन-छबि हाथ उठाय । जगलछमी नाचै बिहसाय || नौनिधि जहां रहैं अभिराम | पिंगलादि हैं जिनके नाम ||८०।। प्रभुअजोग गिन दीनी छार । वे मचलीं से₹ दरबार || मंगल दरव एकसौ आठ | धरे प्रतेक मनोहर ठाठ ||८१।। गावैं जिनगुन देवकुमार | और विविध सोभा तहं सार ।। वितरदेव खड़े दरवान । विनयहीनकौं दैहिं न जान ||८२।। यह पहले गढ़की बिधि कही । आगे और सुनौ अब सही ।। गोपुर तजि चारौं दिसि गली । गमनहेत भीतरकौं चली ।।८३।। तहां निरतसाला दुहं पास | सब दिसिमैं जानौ सुखवास ॥ सुवरनथंभ फटिकमय भीत । तिखनी मनिमय सिखर पुनीत ।।८४।। सुरवनिता नाचें तह एम | लावन-तोय-तरंगनि जेम || मंदहास मुख सोहैं खरी । जिनमंगल गावैं सुखभरी ।।८५।।
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