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१२२ / पार्श्वपुराण
दोहा | समोसरनकी संपदा, लोकोत्तर तिहुं मौन || वचनद्वार बरनै तिसै, सो बुध समरथ कौन ॥६४॥
सौरठा ! पै थल अवसर पाय, धर्मध्यान कारन निरखि || लिख्यौ लेस मन लाय, पढ़त सुनत आनँद बढ़े ||६५||
चौपाई |
पहले गोल पीठिका ठई । इंद्रनीलमनिमय निर्मई ॥ पांच कोस चौड़ी परवान । तीन लोक उपमा नहिं आन ||६६॥
जाके चहुंदिस गिरदाकार । बनी पैंड़िका बीस हजार || हाथ हाथपर ऊंची लसैं । नभपरजंत देखि दुख नसैं ||६७||
तापर धूलीसाल उतंग | पंच रतन रजमय सरवंग || विबिध वरनसौं बलयाकार । झलकै इन्द्रधनुष उनहार ॥६८॥
कहीं स्याम कहिं कंचनरूप । कहिं विद्रुम कहिं हरितअनूप ॥ समोसरन लछमीको एम । दिपै जड़ाऊ कुंडल जेम ||६९||
चारौं दिसि तोरन बन रहे । कनक थंभ ऊपर लहलहे || आ मानभूमि है जहां | मानथंभ चारों दिसि तहां ||७०||
तिनकी प्रथम पीठिका बनी । सोलह पैंड़ी संजुत ठनी ॥ चार चार दरवाजे ठान । तीन तीन तहां कोट महान ||७१||
तिनमैं और त्रिमेखल पीठ । तिनपै मानथंभ थिर दीठ || अति उतंग कंचनके टये । छत्रधुजादिकसौं छबि छये ॥७२॥ जिनैं देखि मानी मद-बढ़े । उतरे मान-महागिरि चढ़े || मूलभाग प्रतिमा मनहरैं । इंद्रादिक पूजा विसतरैं ||७३ ॥
एक एक दिसि चहुं दिसि ठई । सहज वापिका वारिज छई ॥ मंदादिक सुभ जिनके नाम । चारौं दिसि सोलह सुखधाम ॥७४॥
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